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________________ कहानी है। जिस जीवन में इस प्रकार की आपाधापी होती है, उसे हम यहाँ धरती पर भी तो नरक ही कहते हैं । जहाँ किसी के दुःख-सुख से किसी को कोई लगाव नहीं, वहाँ पारिवारिक भाव का कुछ भी स्पन्दन सम्भव है ? पशु-पक्षियों की जाति में तो परिवार की कोई कल्पना ही नहीं, थोड़ा-बहुत है तो कुछ काल तक का मातृत्व भाव जरूर मिल जाता है, पर उसमें भी उदात्त चेतना की स्फुरणा और विकास नहीं है। देव योनी को हम सुख भोग की योनि मानते हैं, वहाँ भी कहाँ है पारिवारिकता ? वहाँ पितृत्व एवं मातृत्व तो कुछ है ही नहीं, पति-पत्नी जरूर होते हैं, पत्नी के लिए संघर्ष भी होते हैं, परन्तु पति-पत्नी का दाम्पत्य-भाव के रूप में, जो उदार भाव है, कर्तव्य और उत्तरदायित्व का, जो उच्चतम आदर्श है, वह तो नहीं है देव योनि में ? शारिरिक बुभुक्षा मोह की एक तड़प के सिवा और है क्या देवताओं में ? अन्य की देवियों को चुराना, उपभोग करना और फिर यही कहीं छोड़ देना । कुछ देव तो इसी मनो रोग के शिकार हैं। इसलिए मैं मनुष्य जाति को ही एक श्रेष्ठ और भाग्यशाली जाति मानता हूँ, जिसमें विराट् पारिवारिक चेतना का विकास हुआ है, स्नेह एवं सद्भाव के अमृत स्रोत बहे हैं, उदात्त - सात्विक संबंधों के सुदृढ़ आधार बने हैं, तथा समर्पण का पवित्र संकल्प जगा है । पारिवारिक भावना का विकास : भगवान् ऋषभदेव को हम वर्तमान चालू मानव सभ्यता के युग का आदि-पुरुष मानते हैं । किसलिए ? इसीलिए कि उन्होंने व्यष्टि केन्द्रित मानव-जाति को समष्टिगत चेतना से पूर्ण किया, मनुष्य को परिवार केन्द्रित रहना सिखाया, उसे सामाजिक कर्तव्य एवं दायित्व का बोध दिया । भगवान् ऋषभदेव के पूर्व के युग में व्यक्ति तो थे, किन्तु परिवार नहीं था । यदि दो प्राणियों के सहवास को और उनसे उत्पन्न युगल संतान को ही परिवार कहना चाहें. तो भले कहें, पर निश्चय ही उसमें पारिवारिकता नहीं । परिवार का भाव नहीं था । वे युगल पति-पत्नी के रूप में नहीं, बल्कि नर-नारी के रूप में ही एक-दूसरे के निकट आते थे । शारीरिक वासना के सिवा उनमें और कोई आत्मीय सम्बन्ध नहीं था । वे सुख-दुःख के साथी नहीं थे, पारस्परिक उत्तरदायित्व की भावना उनमें नहीं थी । उनमें चेतना का ऊर्ध्वकरण नहीं हुआ था। वह चेतना बिखरी हुई, टूटी हुई थी और थी अपने आप में सिमटी हुई । भगवान् ऋषभदेव ने ही उस व्यक्ति केन्द्रित चेतना को समष्टि के केन्द्र की ओर मोड़ा, कर्तव्य और उत्तरदायित्व का संकल्प जगाया, एक-दूसरे की सुखदुःखात्मक अनुभूति का स्पर्श उन्हें करवाया । कहना चाहिए, निरपेक्ष मानस को संवेदनशील बनाया, व्यक्तिगत हृदय को सामाजिकता के सूत्र में जोड़ा। इसलिए जैन संस्कृति उन्हें-"प्रजापतिः " कह कर पुकारती है, प्रथम राष्ट्र निर्माता और धर्म का आदि कर्ता कहकर उनका अभिनन्दन करती है। भगवान ऋषभदेव ने जिस पारिवारिक चेतना का विकास किया था, वह एक तरह हिंसा और मैत्री का ही विकास था। यह मैं मानता हूँ कि पारिवारिक चेतना में राम और मोह की वृत्ति जग जाती है. हमारा स्नेह और प्रेम वैयक्तिक आधार पर खड़ा हो जाता है, किन्तु फिर भी इतना तो मानना ही होगा कि उसके तल में तो हिंसा की सूक्ष्म भावना कहीं-न-कहीं अवश्य मिलेगी, करुणा और मैत्री की कोई-न-कोई श्रीण धारा बहती हुई अवश्य लक्ष्य में आएगी । पलायनवादी मनोवृत्ति : पारिवारिक चेतना में मुझे अहिंसा और करुणा की झलक दिखाई देती है, समर्पण और सेवा का प्रदर्शनिखरता हुआ लगता है। प्राचीन भारतीय समाज व्यवस्था में चार १८४ पन्ना समिक्ख धम्मं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003408
Book TitlePanna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year1987
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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