________________
के जीवन को ही जो भार के रूप में ढो रहा है, वह संसार को जीने का क्या सम्बल देगा? इसीलिए साधना अन्तर्मुखी होनी चाहिए। स्वयं जीएँ, और दूसरों को जीने दें, स्वयं खुश रहें और दूसरों को खुश रहने दें। किसी की खुशी और प्रसन्नता को लूटने की कोशिश न करें।
स्वतन्त्रता की भावना : . आत्मा की तीसरी भावना, स्वतन्त्रता की भावना है। यह बात तो हम युग-युग से सुनते आए हैं कि कोई भी आत्मा बन्धन नहीं चाहती। विश्व में बन्धन और मुक्ति की लड़ाई सिर्फ साधना के क्षेत्र में ही नहीं, बल्कि जीवन के हर एक क्षेत्र में चल रही है। कोई भी व्यक्ति गुलाम रहना नहीं चाहता। हर कोई स्वतन्त्र रहना पसन्द करता है। एक देश, दूसरे देश की गुलामी और अधिकार में नहीं रहना चाहता। एक जाति, दूसरी जाति के दबाब में रहना पसन्द नहीं करती।
आजादी और गुलामी के साथ यह भी बात समझ लेना आवश्यक है कि हमारी भावनाएँ अर्थात् मनुष्य की भावनाएँ गुलामी और मुहब्बत के दायरे में, बिलकुल अलग-अलग है। जबतक पत्र के दिल में पिता के प्रति प्रेम और भक्ति है, जबतक भाई का भाई के प्रति प्रेम है, तबतक वह उसकी सेवा और मिन्नतें करने को तैयार रहता है। कभी उसके मन में इस तरह की कल्पना नहीं उठती कि मैं किसी की गुलामी कर रहा हूँ। किन्तु जब प्रेम का सम्बन्ध टूट जाता है, तो वह एक बात भी उसकी नहीं मानना चाहता। हर बात को वह गुलामी की दष्टि से देखने लग जाता है। पति-पत्नी में जब तक प्रेम है, दोनों एक-दूसरे की हजार. हजार सेवाएँ करने को तैयार रहते हैं, पर पत्नी के मन में भी जब यह आ गया कि पति मुझे गुलाम समझता है, अपनी दासी समझता है, तो वह भी अकड़ जाती है। उसके लिए अपना बलिदान नहीं कर सकती। गुलामी की अनुभति के साथ ही उसकी स्वतन्त्रता समाप्त हो जाती है और स्वतन्त्रता को कोई भी प्राणी किसी भी मूल्य पर खोना नहीं चाहता।।
हमारे यहाँ मानव सभ्यता के आदियुग का प्रसंग आता है। भरत और बाहुबली सगे भाई थे, बड़ा प्रेम था दोनों में। बाहुबली हर क्षण भरत की सेवा में रहते थे, उनका सम्मान करते थे और उन्हें प्राणों से भी अधिक चाहते थे। पर, जब भरत चक्रवर्ती बनते हैं और बाहुबली को कहलाते ह कि आयो, हमारी सेवा करो, बफादारी की शपथ लो! तो बाहुबणी कहते हैं, मेरा तो भाई के साथ प्रेम का सम्बन्ध चला ही आया है, भाई की सेवा में सदा ही तत्पर रहा हूँ, किन्तु अब यह नयी बात क्या आ गई ? भाई के नाते मैं हजार सेवा कर सकता हैं उनकी! हाथ जोडे उनकी सेवा में दिनरात खडा रह सकता है, पर यदि वह गलामसेवक के नाते मुझे बुलाना चाहते हैं, तो, भाई तो क्या, मैं अपने बाप की भी सेवा करना स्वीकार नहीं करूंगा। बस, युद्ध शुरू हो गया और जो कुछ हुआ, वह आपको मालूम ही है। उसने अपनी स्वतन्त्रता नहीं त्यागी। अन्त में विजय प्राप्त करके भी जब देखा कि वास्तव में भरत को चक्रवर्ती होना है, तो जीते हुए साम्राज्य को भी लात मारकर चल पड़े, स्वतंत्रचेता मुनि हो गए।
स्वतन्त्रता : प्रात्मा का स्वभाव है :
अभिप्राय यह है कि हर प्रात्मा में स्वतन्त्र रहने की वत्ति बड़ी प्रबल है। प्रेम के वश वह किसी का सेवक हो सकता है, पर गुलाम बन कर किसी के बन्धन में नहीं रहना चाहता। क्यों नहीं रहना चाहता? इसका भी यही एक उत्तर है कि स्वतन्त्रता प्रात्मा का स्वभाव है, स्वरूप है और उसका अधिकार है। स्वतन्त्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है, यह नारा भारतीय संस्कृति का नारा है, धर्म और संस्कृति का स्वर है।
एक जड़ पदार्थ को आप किसी डिबिया में बन्द करके रख दीजिए, वह हजार वर्ष तक भी बन्द रहेगा, तो भी कोई हलचल नहीं मचाएगा, आजादी के लिए संघर्ष नहीं करेगा, किन्तु यदि किसी क्षुद्रकाय चूहे को भी पिंजड़े में डाल दिया जाए, तो वह भी छूटने के लिए
पन्ना समिक्खए धम्म
www.jainelibrary.org
Jain Education International
For Private & Personal Use Only