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________________ के रक्त सम्बन्ध से चली आने वाली कोई नस्ल नहीं है। वह तो एक प्राध्यात्मिक नस्ल है, जिसके आधार पर धर्म का सम्बन्ध चलता है, साधना की परम्परा चलती है । साधना : एक पावनं तीर्थ : भारत के संतों की स्पष्ट घोषणा है कि धर्म के द्वार पर आपकी जाति, आपका रंगरूप नहीं पूछा जाता, वहाँ श्रात्म-बोध पूछा जाता है, आध्यात्मिक साधना की तैयारी कितनी है, वह देखी जाती है। संत कबीर ने ठीक ही कहा है " जाति न पूछो साध की, पूछ लीजिए ज्ञान । मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान ।। " साधक की जाति और वेश मत पूछो। पूछना है तो यह पूछो कि उसमें ज्ञान का प्रकाश कितना है ? उसकी साधना में तेज कितना है ? तलवार का अपना मूल्य है । यदि वह सोने की म्यान में है, तब भी उसका वही मूल्य है और लोहे या लकड़ी की म्यान में है, तब भी वही बात है । वीर के हाथ में जब तलवार आती है, तो वह उसकी म्यान नहीं देखता, उसकी धार देखता है। मेरे सामने एक पुस्तक प्राई, उसकी ऊपरी साजसज्जा बड़ी चित्ताकर्षक थी। छपाई -सफाई भी सुन्दर थी। किन्तु जब पन्ने पलट कर पढ़ा तो चिन्तन-सामग्री कुछ भी नहीं मिली। नहीं से मतलब यह कि उसकी रचनाओं में कोई प्रतिभा या चमत्कार और मौलिकता नाम की कोई चीज न थी ! अब यदि उसकी साजसज्जा पर हम मुग्ध हो जाएँ, तो फिर विवेक की कसौटी क्या रही ? जो विद्वान् है, वह उसका मूल्यांकन छपाई-सफाई से नहीं, अपितु विचार-सामग्री से करता । तो बात यह है कि साधक का मूल्यांकन भी उसके कुल या शरीर से नहीं होता, बल्कि शील और सदाचार से होता है, साधना की तेजस्विता से होता है । जैन - साहित्य में एक 'तीर्थ' शब्द आता है । साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविकाइन्हें चतुविध तीर्थ माना गया है। मैं पूछता हूँ कि यह तीर्थ है क्या ? क्या साधु या साध्वी का शरीर तीर्थ है ? श्रावक-श्राविका तीर्थ का क्या अर्थ हुआ ? उनका धन, घर या शरीर ? यह भी कोई तीर्थ है ? यह तो तीर्थ नहीं, बल्कि तीर्थ तो है उनकी आध्यात्मिक साधना ! जिससे कि संसार रूपी सागर को पार किया जा सकता है। वह साधना, जो व्यक्ति के अन्तर में उत्पन्न होती है, जीवन में विकसित होती है और मोक्ष के रूप में पर्यवसित होती है - तीर्थ उसे ही कहा जा सकता है। साधु की साधना भी तीर्थ है, साध्वी की साधना भी तीर्थ है, और श्रावक-श्राविका की साधना भी तीर्थ है ! यह साधना जिस किसी व्यक्ति के हृदय में हिलोरें ले रही है, वही तीर्थ है। शास्त्रों में भगवान् के प्ररूपित सिद्धान्तों को भी तीर्थ कहा गया है। और आगे यह भी कहा गया है कि वह शाश्वत तीर्थ है, अनादि, अनन्त है । इसका तात्पर्य भी आपको समझ लेना चाहिए कि जो भगवान् की वाणी है, वह तो शब्दरूप है, जो लिखित आगम है, वह अक्षर रूप है। तो क्या यह शब्द मौर प्रक्षर रूप वाणी ही तीर्थ है ? यह तो शाश्वत है नहीं ! जब भी कोई तीर्थंकर होते हैं, अहिंसा आदि सिद्धान्त की भावार्थ के रूप में प्ररूपणा करते हैं, और गणधर उसे शब्दबद्ध करते हैं, सूत्र रूप में ग्रंथते हैं, तो फिर यह शाश्वत कैसे ? फिर भगवान् का सिद्धान्त रूप तीर्थ क्या वस्तु है ? सिद्धान्त रूप तीर्थ का अभिप्राय तो यह है कि जो अनादि-अनन्त शाश्वत सत्य का ज्ञान है, इस संसार रूपी सागर को पार करने का मार्ग जिस अमर-ज्ञान की ज्योति से दिखाई देता है, वह ज्ञान तीर्थ है। काम, क्रोध यादि कषाय की विजय का जो साधना मार्ग है, वह तीर्थ है । और वह मार्ग शाश्वत है, अनादि श्रनन्त है । जितने भी तीर्थंकर, महापुरुष संसार में आज तक हो चुके हैं, अभी जो हैं और भविष्य में जो भी होंगे - वे सब यही मार्ग बताएँगे ! काम, क्रोध को नाश करने का ही उपदेश वे करेंगे, मोह और माया पर विजय पाने का ही मार्ग के बताएँगे। यह त्रिकाल सत्य है, शाश्वत कल्याण का ज्योतिर्मय पथ Jain Education International For Private & Personal Use Only १६५ www.jainelibrary.org.
SR No.003408
Book TitlePanna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year1987
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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