________________
उर्वर खेत है, तो वहाँ गन्दी से गन्दी चीज भी उर्वरक बन जाएगी, फसल खड़ी कर देगी। इसलिए धर्म कहता है-सबसे पहले मन को तैयार करो। मन को शिक्षण दो , ताकि वह समय पर सही निर्णय करने में समर्थ हो सके, गलत काम से बच सके। धर्म का दर्शन और चिन्तन मन को तैयार करने का उपक्रम है।
__सैद्धान्तिक चर्चाएँ, अथवा समस्त दार्शनिक विचारणाएँ वर्तमान में भले ही विशेष उपयोगी प्रतीत न हों, पर मन की भूमिका तैयार करने में इनका सबसे महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसलिए हमारा धर्म केवल धर्म ही नहीं, दर्शन भी है। धर्म जीवन व्यवहार का विधायक है, तो दर्शन उसका मार्गद्रष्टा है । साधारण लोगों के जीवन में धर्म केवल धर्म रूप ही रहता है, वह सिर्फ वर्तमान का एक सत्कर्म मात्र रहता है, किन्तु विवेकशील व्यक्ति के जीवन में धर्म दर्शन के रूप में प्रवेश करता है। वह सिर्फ कर्म ही नहीं, बल्कि चिंतन भी बन जाता है, जीवन का मार्गद्रष्टा बन जाता है। मन को सही निर्णय करने की ट्रेनिंग देता है। किसी भी समय में, कैसी भी परिस्थिति में, यदि मन भटकता है, तो दर्शन उसको सही मार्ग पर ले आता है। इस तरह धर्म वर्तमान जीवन को व्यवस्थित करता है, तो दर्शन भविष्य के लिए मन की भूमिका तैयार करता है। मन को किसी भी स्थिति का सामना करने के लिए निपुण एवं दक्ष बनाता है।
धर्भ के पहलवान !
___हम एक बार एक गाँव में गए । वहाँ बहुत बड़े दंगल की तैयारी हो रही थी। उस गांव में एक पहलवान था, बड़ा दबदबा था उसका। गाँव वालों को भी उस पर बड़ा नाज था। उसके लिए गाँव वालों ने अलग से एक भैंस ले रखी थी। उस भैंस का मक्खन व दूध उसे रोज चटाया जाता, उसकी हर अावश्यकता की पूर्ति के लिए गांव वाले दिल खोल कर खर्च करते और वह जब गलियों से निकलता, तो बड़ा लम्बा-चौड़ा होकर निकलता! एक बार उस पहलवान को किसी बाहर के पहलवान ने चुनौती दी, और उसी के गाँव में दंगल होना भी तय हुआ ! समय पर सब लोग मैदान में उसका इंतजार कर रहे थे, पर वह घर से निकला तक नहीं। कहीं जाकर दुबक गया। गाँव वालों ने उसकी बड़ी थू-थू की और कहा, गाँव की नाक कटा दी, इज्जत मिट्टी में मिला दी।
धर्म के क्षेत्र में भी ऐसे पहलवानों की कमी नहीं है। वे धर्म क्रिया की भैंस का दूधमक्खन चाटते रहते हैं, मंदिर व धर्मस्थान में पहलवानी करते रहते हैं, तो लोगों को लगता है, पहलवान बड़ा तगड़ा है, जीवन-संघर्ष में निश्चित ही विजयी होगा। किन्तु, जब मानअपमान एवं हानि-लाभ के द्वन्द्व उठ खड़े होते हैं, धर्म की परीक्षा का समय आता है, निर्णायक घड़ी आती है, तो वे पहलवान फिसड्डी बन जाते हैं, उनका मन निस्तेज और निष्प्राण हो जाता है। वे कर्तव्य-अकर्तव्य का उचित निर्णय नहीं कर सकते, धर्म-अधर्म का फैसला नहीं कर सकते, उनका मन पीछे की खिड़की से भागने का प्रयत्न करने लगता है।
___ अतः यह स्पष्ट है, समय पर न्यायोचित कर्तव्य के लिए तैयार रहना, यह मन की ट्रेनिंग है, इसके लिए केवल धर्मक्रिया की भैंस का दूध पीते रहना ही काफी नहीं है, सिद्धान्त और दर्शन की जिन्दादिली भी आवश्यक है। यह जिन्दादिली ही मन की तैयारी है, जो समय पर सही निर्णय देने में समर्थ होती है।
अंतरंग असंगता :
मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि मन की भूमिका ऐसी होनी चाहिए कि वह शरीर, इन्द्रिय, धन आदि को सत्कर्म में नियोजित कर सके। वृत्तियों को उदात्त रूप दे सके ! शरीर, इन्द्रिय आदि तो प्रारब्ध के भोग हैं, रथ के घोड़े हैं, इन्हें जहाँ भी जोड़ा जाए, वहीं जुड़ जाएंगे और जिधर भी मोड़ा जाए, उधर ही मुड़ जाएंगे। किधर मोड़ना है, यह निर्णय मन को करना होगा। यदि राग-द्वेष की ओर इनकी गति होगी, तो वे बन्ध के कारण होंगे।
१५०
पन्ना समिक्खए धम्म
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org