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________________ भगवान महावीर नेः 'पाराहए लोकमिणं तहा परं' की जो घोषणा की, वह न परलोकवादियों को चुनौती थी और न लोकवादियों को ही चुनौती थी, बल्कि एक स्पष्ट, अभ्रांत दृष्टि थी, जो दोनों तटों को एक साथ स्पर्श कर रही थी। ___ अनेक बार हमारे सामने वीतरागता का प्रश्न आता है, उसकी पर्याप्त चर्चाएँ होती हैं, किन्तु प्रश्न यह है कि यह वीतरागता क्या है ? यह लोक है, या परलोक है ? इसका सम्बन्ध किससे है ? किसी से भी तो नहीं है। वीतरागता लोक-परलोक से परे है, वह लोकातीत है। भगवान महावीर का इस संदर्भ में स्पष्ट उद्बोधन है."तुम लोक-परलोक की दृष्टि से ऊपर उठ कर 'लोकातीत' दृष्टि से क्यों नहीं सोचते ? काल प्रवाह में अपनी अखण्ड सत्ता की अनुस्यूति को क्यों नहीं अनुभव करते? वर्तमान और भविष्य में तुम्हारी सत्ता विभक्त नहीं है, वह एक है, अखण्ड है, अविच्छिन्न है। फिर अपने को टुकड़ों में क्यों देखते हो?" जैन-दर्शन एक ओर लोक-परलोक की आराधना की बात कहता है, दूसरी ओर लोक-परलोक के लिए साधना करने का निषेध भी कर रहा है। वह कहता है-"नो इह लोगट्टयाए, नो परलोगट्ठयाए..." न इस लोक के लिए साधना करो, न परलोक के लिए ही। लोक-परलोक-यह रागद्वेष की भाषा है, आसक्ति का रूप है, संसार है। सुख-दुःख का बंधन है। हमें लोक-परलोक से ऊपर उठकर 'लोकातीत' दृष्टि से सोचना है। और, वह लोकातीत दष्टि ही वीतराग-दृष्टि है। ____ वीतराग का जब निर्वाण होता है, तो हम क्या कहते हैं ? परलोकवासी हो गए...? नहीं, परलोक का अर्थ है, पुनर्जन्म । और, पुनर्जन्म तभी होगा, जब आत्मा में राग-द्वेष के संस्कार जगे होंगे। राग-द्वेष के संस्कार वीतराग में है नहीं। वीतराग की मृत्यु का अर्थ है-लोकातीत दशा को प्राप्त होना । यदि हम लोक-परलोक के दृष्टिमोह से मुक्त हो जाते हैं, तो इस लोक में भी लोकातीत दशा की अनुभूति कर सकते हैं। देह में भी विदेह स्थिति प्राप्त कर सकते हैं। श्रीमद् रायचन्द्र के शब्दों में "देहछतां जेहनी दशा वर्ते देहातीत । ते ज्ञानी ना चरणमां वन्दन हो अगणीत ॥" राग का प्रत्यावर्तन : लोक-परलोक के सम्बन्ध में जैसी कुछ भ्रान्त धारणाएँ हैं, वैसी ही वीतरागता के सम्बन्ध में भी हैं। वीतरागता एक बहुत ऊँची भूमिका है। उसके लिए अत्यन्त पुरुषार्थ जगाने की आवश्यकता है। परन्तु हम देखते हैं, नीचे की भमिकामों में क्षद्रमन के व्यक्ति उसका प्रदर्शन करते हैं और कर्तव्य से च्युत होते हैं । अतः प्राज के सामान्य साधक के समक्ष प्रश्न यह है कि जब तक यह लोकातीत स्थिति प्राप्त न हो जाए, तबतक इस लोक में कैसे जिएँ? जब तक देहातीत दशा न आए, तब तक देह को किस रूप में सँभालें? जब तक वीतराग दृष्टि नहीं जगती है, तब तक राग को किस रूप में प्रत्यावर्तित करें कि वह कोई बन्धन नहीं बने । यदि बन्धन भी बने, तो कम से कम लोहे की बेड़ी तो न बने ! जब तक आत्मा के ज्योतिर्मय स्वरूप का दर्शन न हो, तब तक इतना तो करें कि कम-से-कम अन्धकार में भटक कर ठोकरें तो न खाएँ ! साधक के सामने यह एक उलझा हा प्रश्न खड़ा है। वह समाधान चाहता है और यह समाधान खोजना ही होगा। प्राचार्यों ने इसका उत्तर दिया है-जब तक वीतरागता नहीं पाए, तब तक राग को शुभ बनाते रहो । राग अशुभ भी होता है, शुभ भी। अशुभ-राग मलिन है, शुभ-राग कुछ निर्मल है। बन्धन दोनों हैं। पर, दोनों में अन्तर है। एक कांटे की चोट है, तो एक फूल की चोट है।। भगवान् महावीर ने लोक-परलोक की आराधना करने का जो उद्घोष दिया है, वह राग को शुभ एवं निर्मल बनाने की एक प्रक्रिया है। जैसा मैंने आपसे कहा-वीतराग राग का ऊवीकरण १४१ www.jainelibrary.org Jain Education Interational For Private & Personal Use Only
SR No.003408
Book TitlePanna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year1987
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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