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________________ fareगा : भक्ति, कर्म और ज्ञान, वीतरागता का पाथेय : धर्म, धर्म का अन्तर हृदय, साधना के दो आदर्श, राग का ऊर्ध्वकरण, जीवन में स्व का विकास, श्रात्म जागरण, धर्म की परख का आधार, उत्सर्ग और अपवाद : दोनों ही मार्ग, महाव्रतों का भंग-दर्शन, अहिंसा : विश्व शान्ति की आधारभूमि, भगवत्ता : महावीर की दृष्टि में आदर्शप्रामाणिकता, ब्रह्मचर्य : साधना का सर्वोच्च शिखर, अपरिग्रह : अनासक्ति योग, सर्व-धर्म समन्वय : नाग्रह दृष्टि और पन्ना समिक्ख धम्मं श्रादि पच्चीस लेखों में धर्म एवं अध्यात्म का सर्वांग विवेचन किया है । प्रस्तुत खण्ड में धर्म एवं अध्यात्म की समीक्षा किसी परम्परा के दायरे में नहीं, प्रज्ञा की कसौटी पर कस कर की गई है। प्रस्तुत लेखों की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि हर पंक्ति प्रज्ञा के श्रालोक से जगमगा रही है और स्वाध्यायी को सम्यक - दिशा दर्शन देती है । सांस्कृतिक, सामाजिक एवं राजनीतिक दृष्टिकोण में संस्कृति और सभ्यता, मानव संस्कृति में व्रतों का योगदान, व्यक्ति और समाज, अन्तर्यात्रा, जीने की कला : कर्म में अकर्म, समाज-सुधार की स्वर्णिम रेखाएँ, नारी : धर्म एवं संस्कृति की सजग प्रहरी, देश की विकट समस्या : भूख, युग-युग की मांग : समानता, राष्ट्रीय जागरण, वसुधैव कुटुम्बकम् : बूंद नहीं, सागर, प्रभृति लेखों में गुरुदेव का विशुद्ध चिन्तन स्पष्ट रूप से मुखरित है कि धर्म जीवन के विभिन्न खण्डों में विभक्त नहीं है । जीवन के हर क्षेत्र में उसकी प्रखण्ड धारा प्रवहमान है । धर्म-स्थान में ही धर्म होगा, जीवन के अन्य क्षेत्रों में नहीं, यह संकीर्ण मान्यता धर्म के यथार्थ स्वरूप को नहीं समझने का परिणाम है। वस्तुतः धर्म, द्रष्टा बनकर जीवन के हर क्षेत्र में, हर परिस्थिति में सम बने रहने में है, मानसिक सन्तुलन को बनाए रखने में तथा विवेकपूर्वक कर्म करने में है । अतः गुरुदेव का स्पष्ट चिन्तन है कि सिर्फ धर्म स्थान में ही नहीं, जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में, हर कर्म में धर्म की ज्योति प्रज्वलित रहनी चाहिए । धर्मपूर्वक किया गया कर्म कर्म है । प्रस्तुत ग्रन्थ के अनुशीलन से यह सम्यक् रूप से परिज्ञात हो जाता है कि गुरुदेव का चिन्तन विशाल है, स्पष्ट है, और जीवन पथ पर गति प्रगति करने के लिए ज्योतिस्तंभ है । Jain Education International xi For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.003408
Book TitlePanna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year1987
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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