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________________ साधु का वेष पहन कर भी यदि साधुता का स्पर्श नहीं हुअा, तो उस वेष से कुछ भी लाभ नहीं हो सकता। बाहर का महत्त्व नहीं, अन्दर का महत्त्व है। दो आदर्श : वाराणसी में संत कबीर साधना में लगे थे। वह बाहर' में वस्त्रों का ताना-बाना बुन रहे थे। किन्तु, अन्दर में साधना का ताना-बाना बुनने में संलग्न थे। एक ब्राह्मण का पुत्र अनेक विद्यानों का अध्ययन करके पच्चीस वर्ष की अवस्था में जब जीवन के नये मोड़ पर आया, तो उसने विचार किया कि वह कौन-से जीवन में प्रवेश करे, साधु बने या गृहस्थाश्रम में जाए? अपनी इस उलझन को उसने कबीर के समक्ष रखा। कबीर उस समय ताना पूर रहे थे। प्रश्न सुनकर भी उन्होंने कोई उत्तर नहीं दिया। युवक ने कुछ देर तक चुप रहकर प्रतीक्षा की, किन्तु कोई उत्तर नहीं मिला। उसने फिर अपना प्रश्न दुहराया, लेकिन कबीर ने फिर भी जवाब नहीं दिया। तभी कबीर ने पत्नी को पुकारा"जरा देखो तो ताना साफ करने का झब्बा कहाँ है ?" इतना कहना था कि कबीर की पत्नी उसे खोजने लगी। दिन के सफेद उजाले में भी कबीर ने बिगड़ते हुए कहा-“देखती नहीं हो, कितना अंधकार है ? चिराग लाकर देखो, पत्नी दौड़ती हई चिराग लेकर आई, और लगी खोजने । झब्बा तो कबीर के कन्धे पर रखा था। किन्तु, फिर भी कबीर की पत्नी पति की इतनी आज्ञाकारिणी थी कि जैसा उसने कहा वैसा ही करने लग गई। युवक को यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ। वह सोच ही रहा था कि आखिर यह क्या माजरा है ? इतने में कबीर ने अपने लड़के और लड़की को आवाज दी। जब वे आए, तो उन्हें भी वही झब्बा खोजने का आदेश दिया। और, वे भी चपचाप खोजने लग गए। कुछ देर तक खोजने के बाद कबीर ने कहा----"अरे! यह तो मेरे कंधे पर रहा। अच्छा जानो, अपना-अपना काम करो।" सभी लौट गए। युवक बड़ा परेशान था कि "यह कैसा मूर्ख है ? कैसी विचित्र बातें करता है ? मेरे प्रश्न का क्या खाक उत्तर देगा ?" तभी कबीर ने उसकी ओर देखा, युवक ने फिर अपना प्रश्न दुहराया। कबीर ने कहा, मैं तो उत्तर दे चुका हूँ, तुम अभी समझे नहीं। अभी जो दृश्य तुमने देखा था, उससे सबक लेना चाहिए। यदि गृहस्थ बनना चाहते हो तो, ऐसे बनो कि तुम्हारे प्रभावशाली व्यक्तित्व से प्रभावित घर वाले दिन को रात और रात को दिन मानने को भी तैयार हो जाएँ। तुम्हारे विवेकपूर्ण कोमल व्यवहार में इतना आकर्षण हो कि परिवार का प्रत्येक सदस्य तुम्हारे प्रति अपने आप खिंचा रहे, तब तो गृहस्थ जीवन ठीक है। अन्यथा यदि घर कुरुक्षेत्र का मैदान बना रहे, आये दिन टकराहट होती रहे, तो इस गृहस्थ जीवन से कोई लाभ नहीं। और, यदि साधु बनना हो, तो चलो एक साधु के पास, तुम्हारा मार्ग-दर्शन करा दूं।। कबीर युवक को लेकर एक साधु के पास पहुँचे, जो गंगा तट पर एक बहुत ऊँचे टीले पर रहता था। कबीर ने उन्हें पुकारा तो वह वृद्ध साधु लड़खड़ाता हुआ धीरे-धीरे नीचे उतरा। कबीर ने कहा--"बस, आपके दर्शनों के लिए आया था, दर्शन हो गए।" साधु फिर धीरे-धीरे ऊपर चढा. तो कबीर ने फिर पुकारा और साध फिर नीचे पाया और पूछा-"क्या कहना है ?" कबीर ने कहा--"अभी समय नहीं है, फिर कभी पाऊँगा, तब कहूँगा।" साधु फिर टीले पर चढ़ गया। कबीर ने तीसरी बार फिर पुकारा और साधु फिर नीचे आया । कबीर ने कहा-“ऐसे ही पुकार लिया, कोई खास बात नहीं है।" साधु उसी भाव से, उसी प्रसन्न मुद्रा से फिर वापिस लौट गया। उसके चेहरे पर कोई शिकन तक न आई। कबीर ने युवक की ओर प्रश्न भरी दष्टि डाली और बोले-"कुछ देखा? साधु बनना हो, तो ऐसा बनो। इतना अशक्त वद्ध शरीर, आँखों की रोशनी कमजोर, ठीक तरह चला भी नहीं जाता। इतना सब कुछ होने पर भी, तुमने देखा, मैंने तीन बार पुकारा और तीनों बार उसी शान्त मुद्रा से नीचे आए और वैसे ही लौट गए। मुझ पर जरा भी पन्ना समिक्खए धम्म Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003408
Book TitlePanna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year1987
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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