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अन्तर्-हृदय धर्म का क्या है ?
वह है विश्वात्मा होना। तेरे-मेरे के द्वन्द्वों का,
अन्तर् से अपगत होना ॥
जहाँ राग है, जहाँ द्वेष है,
वहाँ धर्म कैसे होगा? अंधकार को प्रमा निशा में
भास्कर रवि कैसे होगा।
-'उपाध्याय अमरमुनि
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