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________________ है क्या ? ठीक उसी प्रकार, अन्तर में जो यह महाप्रकाश का पुंज है, वह आवरणों से ढँका हुआ है, अन्तर् का वह शास्ता अपने प्रापको भुला बैठा है, अतः उसे सिर्फ अपने निज स्वरूप का, अपनेपन का भान हो सके, ऐसी एक उदात्त प्रेरणा की आवश्यकता है । आप जानते हैं, सामायिक, संवर, व्रत, प्रत्याख्यान आदि का क्या अर्थ है ? क्या इनसे किसी नवीन आत्म-शक्ति के प्रादुर्भाव की आकांक्षा है ? ये सब तो केवल उस शक्ति को जागृत करने के साधन मात्र हैं, प्रेरणा की एक चिनगारी मात्र हैं, जिनके माध्यम से आत्मा निज स्वरूप का यथार्थ बोध कर सके । प्रेरणा की चिनगारी : भारत के प्राचीन इतिहास में वर्णन आता है कि जब कोई बहुत बड़ा सहस्र-योधी क्षत्रिय वीर मैदान में लड़ता - लड़ता शिथिल होने लगता था, अपना थापा भूल जाता था, तो पीछे से एक बुलन्द आवाज आती थी -- लड़ो, लड़ो। यह आवाज सुनकर वह पुनः चैतन्य हो उठता था और तब पुनः उसके हाथों में तलवार चमक उठती थी। प्राचीन समय के युद्धक्षेत्रों में जो चारणों की व्यवस्था रहती थी, उसके पीछे यह भावना निहित थी । वे समय-समय पर वीरों के ठंडे पड़ते खून में उफान ला देते थे । सोते हुए पुरुषार्थ को जगा कर मैदान में रणचण्डी के समक्ष ढकेल देते थे । महाभारत में अर्जुन को श्रीकृष्ण से निरंतर प्रेरणा मिलती रही कि यह जीवन तेरे कर्तव्योचित युद्ध के लिए है, इससे मुँह मोड़कर अपनी क्लीवता प्रकट मत कर। इसी प्रकार इस जीवन-संग्राम में प्रत्येक साधक अर्जुन है, और प्रत्येक गुरु श्रीकृष्ण ! गुरु साधक को विकारों से लड़ने के लिए निरंतर प्रेरित करते हैंजब-जब काम, क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रमाद, मोह का आवरण श्रात्मा पर पड़ता है, तब-तब गुरु उसे सावधान करते रहते हैं । चेतना की उस दिव्य दीप्त चिनगारी पर जबजब विकारों की राख जमने लगती है, तो व्रत, उपवास, प्रत्याख्यान आदि के द्वारा उसे हटाने का प्रयत्न होता है। ये सब विकारों के लोह आवरणों को तोड़कर आत्मा के शुद्ध स्वरूप का दर्शन कराने के लिए ही साधना के कम हैं । श्रात्म-दर्शन : आत्म-स्वरूप का सम्यक् ज्ञान होने के बाद विभाव के बंधन टूटने में कोई समय नहीं लगता । जिस प्रकार काली घटानों से श्राच्छादित अमावस की कालरात्रि का सघन अंधकार दीपक के जलते ही दूर भाग जाता है । पर्वतों की कन्दरात्रों में हजारों वर्षों से रहने वाले उस गहन अंधकार को प्रकाश की एक किरण एक क्षण में ही समाप्त कर डालती है, और उसी क्षण सब ओर प्रालोक की पुनीत रश्मियाँ जगमगा उठती हैं । जैन दर्शन अनुसार, उत्पत्ति और व्यय का क्षण बिल्कुल संयुक्त रहता है। सृष्टि और संहार का काल एक ही होता है । यह नहीं होता कि प्रकाश पहले हो, तदनन्तर कुछ समय के बाद अन्धकार नष्ट हो या अन्धकार पहले नष्ट हो, तदनन्तर प्रकाश जगमगाए । प्रकाश का प्रादुर्भाव और अन्धकार का नाश एक क्षण में ही दोनों होते हैं। ठीक वैसे ही आत्मा पर चिपके हुए बाह्य आवरणों के टूटने का और ग्रात्म-स्वभाव के प्रकट होने का कोई अलगअलग समय नहीं है । आत्म-स्वभाव के जागते ही विभाव समाप्त हो जाता है । घर में प्रकाश फैलते ही तत्काल अंधकार दूर हो जाता है, समस्त वस्तुएँ अपने आप प्रतिभासित हो जाती हैं । सवाल यह है कि हमने धर्म को जानने का एक अभिनय मात्र ही किया है या वास्तव जाना भी है ? जिस व्यक्ति ने अपने को पहचान लिया, उसने निज-स्वरूप धर्म को भी पहचान लिया। वह भटकता नहीं । जिसे आत्मा की अनन्तानन्त शक्तियों का पता नहीं, वह वासनाओं और विकारों के द्वार पर ही भटकता रहता है । यदि ग्राप एक चक्रवर्ती के पुत्र को गली-कूचे में भीख माँगते देखेंगे, तो सम्भव है, पहले क्षण आप अपनी आँखों वीतरागता का पाथेय : धर्म Jain Education International For Private & Personal Use Only १२३ www.jainelibrary.org.
SR No.003408
Book TitlePanna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year1987
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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