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________________ महाश्रमण भगवान महावीर ने भी अध्यात्म-साधना का, सामायिक की साधना का फल प्रवृत्ति का निरोध नहीं, राग-द्वेषात्मक पापकारी सावध प्रवत्तियों का निरोध बताया है। वस्तुतः सामायिक समभाव की साधना है। ज्ञानपूर्वक समभाव में रमण करना ही सामायिक है। उत्तराध्ययन सूत्र का पाठ है-- "सामाइएणं सावज्जजोगविरई जणयई ॥" --उत्तरा. २६६ यथार्थ में साधना बाह्य क्रिया-काण्ड की नहीं, वीतराग-भाव की है। क्रिया-काण्ड भले ही वह किसी भी परम्परा का हो और कितना ही कठोर एवं उत्कृष्ट क्यों न हो, बन्ध का हेतु प्राश्रव है, भले ही वह शुभ-पाश्रव हो सकता है। वास्तव में वीतराग-भाव की साधना ही क्षायिक साधना है, इसीसे स्नेह (राग) के, तष्णा के, द्वेष के बन्धन कट जाते है-- "वीयरागयाएणं नेहाणुबंधणाणि, ताहाणुबंधणाणि य वोच्छिदइ। --उत्तरा, २६।४६ अतः धर्म केवल परम्परागत चले आ रहे बाह्य प्राचार के विधि-निषेधों एवं क्रियाकाण्डों में नहीं है। धर्म है--विवेक में, प्रज्ञा में। इसलिए युग के बदलते परिवेश में प्रज्ञा के द्वारा धर्म-साधनों की समीक्षा करनी चाहिए। देश-काल के अनुसार जो परम्पराएँ अनुपयोगी हो गई हैं, जो रूढियाँ निष्प्राण हो गई हैं, बिना सोचे-समझें, ज्ञानपूर्वक उनकी समीक्षा किए बिना उनके शव के बोझ को ढोते रहना, न स्वयं अपने लिए हितप्रद हैं और न समाज के लिए हो । उसमें से छल-कपट, राग-द्वेष, दम्भ-अहंकार आदि विकारों की 'सड़ांध' ही पैदा होगी। अत: पागम की भाषा में प्रज्ञा के द्वारा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव का यथार्थ बोध करके धर्म-साधनों में युग के अनुसार परिवर्तन करना अपेक्षित है। युगचेतना का तिरस्कार करके एवं प्रज्ञा (ज्ञान) की आँख को बन्द करके चलने वाला कोई भी साधक एवं कोई भी समाज अभ्युदय के पथ पर बढ़ नहीं सकता।। श्रद्धेय पूज्य गुरुदेव का चिन्तन सागर से भी अधिक गंभीर है, तो उनकी प्रज्ञा-ज्योति एवं उनके विचार हिमगिरि के उत्तुंग शिखर से भी अधिक ऊंचाई को स्पर्श कर रहे हैं। वह भी सिर्फ किसी एक सीमित क्षेत्र में नहीं, आध्यात्मिक, धार्मिक, दार्शनिक, सामाजिक एवं राष्ट्रीय सभी क्षेत्रों को उनकी प्रज्ञा पालोकित कर रही है। श्रद्धेय गुरुदेव एक ओर अध्यात्म-साधक है, अनुत्तर ध्यान-योगी हैं, तत्त्ववेत्ता है, तो दूसरी ओर अध्यात्म एवं तत्त्व-ज्ञान को एक युगीन स्वरूप प्रदान करने वाले, महान् विवेचक एवं सम्यक दिशा-निर्देशक भी हैं। उनका चिन्तन तथाकथित निष्क्रिय धर्म एवं अध्यात्म के क्षुद्र दायरे में आबद्ध नहीं है। वह तो जीवन के कण-कण में परिव्याप्त है। श्रद्धेय गुरुदेव का स्पष्ट संदेश है कि धर्म किसी स्थान, किसी काल, किसी वेश-भूषा या किसी क्रिया-काण्ड विशेष में ही नहीं है, वह अक्षुण्ण एवं प्रखण्ड दिव्य ज्योति है, जो जीवन के हर व्यवहार में झलकती रहनी चाहिए। उसे जीवन की धारा से अलग करना धर्म ix Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003408
Book TitlePanna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year1987
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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