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बालक ज्यों-ज्यों युवक एवं योग्य होता जाता है, त्यों-त्यों वह अपना दायित्व अपने ऊपर लेता जाता है । दायित्व को गेंद की तरह दूसरों की ओर नहीं उछालता बल्कि अपने ही परिधान की तरह अपने ऊपर प्रोढ़ता है । "मैं क्या करूँ ? मैं क्या कर सकता हूँ ?" यह युवक की भाषा नहीं है । दायित्व को स्वीकार करने वाले का उत्तर यह नहीं हो सकता । वह हर समस्या को सुलझाने की क्षमता रखता है उसकी भुजाओं में गहरी पकड़ की वाशक्ति होती है, बुद्धि में प्रखरता होती है। पिता भी युवक पुत्र को जिम्मेदारी सौंप देता है । उसे स्वयं निर्णय करने का अधिकार दे देता है। यदि कोई पिता योग्य पुत्र को भी दायित्व सौंपने से कतराता है, उसे श्रात्मनिर्णय का अधिकार नहीं देता है, तो वह पुल के साथ न्याय नहीं करता। उसकी क्षमताओं को विकसित होने का अवसर नहीं देता। ऐसी स्थिति में यदि पुत्र विद्रोही बनता है, अथवा प्रयोग्य रहता है, तो इसका दायित्व पिता पर ही आता है । नीति-शास्त्र ने इसीलिए यह सूत कहा है
" प्राप्ते तु षोडशे वर्षे पुत्रं मित्रवदाचरेत् । "
पुत्र जब सोलह वर्ष पार कर जाता है, योग्य हो जाता है, तो उसके साथ मित्र की तरह व्यवहार करना चाहिए।
आप जानते हैं, अच्छा मास्टर या गुरु कैसे परखा जाता है। अच्छा मास्टर बच्चों को पाठ पढ़ाते समय आाखिर तक खुद ही नहीं बोलता जाता, बल्कि बीच-बीच में उनसे पूछता है, उन्हीं के मुँह से सुनता है ताकि पता चले, बच्चे कितना ग्रहण कर रहे हैं, उनकी बौद्धिक क्षमता कितनी है ? ऐसा करने से बच्चों को सोचने का अवसर मिलता है, क्षमता को विकसित होने का मार्ग मिलता है। जो अध्यापक स्वयं ही सब कुछ लिखा-पढ़ा देता है, उसके छात्र afar विकास में दुर्बल रह जाते हैं ।
इसी प्रकार भगवान् या गुरु साधक को मार्ग दिखाता है, दृष्टि देता है, किन्तु अपने श्रित एवं अधीन नहीं करता, उसमें आत्मनिर्भर होने का भाव जगाता है । अपना दायित्व अपने कन्धों पर उठाकर चलने का साहस स्फूर्त करता है, बस यही हमारा कर्मयोग है । भक्ति योग में जो भगवान् रक्षक के रूप में खड़ा था, कर्मयोग में वह एक मार्गदर्शक भर रहता है ।
ज्ञानयोग का प्रतीक : वृद्धत्व :
जीवन की तीसरी अवस्था बुढ़ापा है। बुढ़ापे में शरीर बल क्षीण हो जाता है। कहा जाता है, बालक का बल माता है, युवक का बल उसकी भुजाएँ हैं और वृद्ध का बल उसका अनुभव है। बुढ़ापे में जब शरीर जराजीर्ण हो जाता है, इन्द्रियाँ शिथिल हो जाती हैं, तब वह न भक्ति कर सकता है और न कर्म ही । उसके पास तब केवल अनुभव अर्थात् ज्ञान ही सहारा होता है, यही उसका बल है । ज्ञानयोग की अवस्था इसीलिए साधना की तीसरी अवस्था मानी गई है ।
भारतीय संस्कृति में वृद्ध को ज्ञान का प्रतीक माना गया है। जीवन भर के अध्ययन एवं अनुभव का नवनीत वृद्ध से प्राप्त हो सकता है। इसलिए महाभारत में 'वृद्ध' को धर्मसभा का प्राण बताते हुए कहा गया है-- "न सा सभा यत्र न संति वृद्धाः” ।" जिस धर्म सभा में वृद्ध उपस्थित न हो, वह सभा ही नहीं है । बुद्ध ने भी इसीलिए कहा कि - "जो वृद्धों का अभिवादन-विनय करता है, उसके आयु, यश, सुख एवं बल की वृद्धि होती है ।"
तात्पर्य यह है कि वृद्ध अवस्था परिपक्व अवस्था है, जिसमें अध्ययन अनुभव का रस पाकर मधुर बन जाता है। उसकी कर्मेन्द्रियाँ भले ही क्षीण हो जाएँ, किन्तु ज्ञानशक्ति
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१. महाभारत, ३५, ५८
२. धम्मपद, ८, १०
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पन्ना समिक्ख धम्मं
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