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धर्म-धर्म का शोर मचा है,
किन्तु, धर्म का क्या स्वरूप है ?
जीवन का परिशोधन हो तो,
आत्म-धर्म का स्वच्छ रूप है ।
बाहर में मत हैं, पथ हैं सब,
क्रिया-काण्ड में उलझ रहे हैं ।
जीवन के परिशोधक धर्मी,
स्वयं स्वयं में उतर रहे हैं ।
- उपाध्याय श्रमरमुनि
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