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परमाणु-स्वरूप मूलतत्त्व है, वह तो ज्यों का त्यों अपनी उसी स्थिति में विद्यमान है। विनाश और उत्पत्ति केवल आकार की ही हुई है। पुराने आकार का नाश हुआ है और नये आकार की उत्पत्ति हुई है। इस उदाहरण के द्वारा सोने में कंगन के आकार का नाश, हार के आकार की उत्पत्ति, और सोने की तदवत्-स्थिति-ये तीनों धर्म भली-भांति सिद्ध हो जाते हैं।
इसी प्रकार प्रत्येक वस्तु में उत्पत्ति, विनाश और स्थिति—ये तीनों गुण स्वभावतया समन्वित रहते हैं। कोई भी वस्तु जब नष्ट हो जाती है, तो इससे यह न समझना चाहिए कि उसके मूलतत्त्व ही नष्ट हो गए। उत्पत्ति और विनाश तो उसके स्थूल-रूप के होते है। स्थूल वस्तु के नष्ट हो जाने पर भी उसके सूक्ष्म परमाणु, तो सदा स्थित ही रहते है। वे सूक्ष्म परमाणु, दूसरी वस्तु के साथ मिलकर नवीन रूपों का निर्माण करते हैं। वैशाख और ज्येष्ठ के महीने में सूर्य की किरणों से जब तालाब आदि का पानी सूख जाता है, तब यह समझना भूल है कि पानी का सर्वथा नाश हो गया है, उसका अस्तित्व पूर्णतया नष्ट हो गया है। पानी चाहे अब भाप या गैस आदि किसी भी रूप में क्यों न हो, वह अन्ततः परमाणुरूप में विद्यमान है। हो सकता है, उसका वह सूक्ष्म रूप दिखाई न दे, पर यह कदापि सम्भव नहीं कि उसकी सत्ता ही नष्ट हो जाए। अतएव यह सिद्धान्त अटल है कि न तो कोई वस्तु मूल रूप से अपना अस्तित्व खोकर सर्वथा नष्ट ही होती है और न शून्य-रूप अभाव से भावस्वरूप होकर नवीन रूप में सर्वथा उत्पन्न ही होती है। आधुनिक पदार्थ विज्ञान भी इसी सिद्धान्त का समर्थन करता है। वह कहता है--"प्रत्येक वस्तु मूल प्रकृति के रूप में ध्रुव है, स्थिर है, और उससे उत्पन्न होनेवाले अपरापर दृश्यमान पदार्थ उसके भिन्न-भिन्न रूपान्तर मात्र हैं।" नित्यानित्यवाद को मल दष्टि :
उपर्युक्त उत्पत्ति, विनाश और स्थिति-इन तीन गुणों में जो मूल वस्तु सदा स्थित रहती है, उसे जैन-दर्शन द्रव्य कहता है, और जो उत्पन्न एवं विनष्ट होती रहती है, उसे पर्याय कहता है। कंगन से हार बनानेवाले उदाहरण में--सोना द्रव्य है और कंगन तथा हार पर्याय है। द्रव्य की अपेक्षा से प्रत्येक वस्तु नित्य है और पर्याय की अपेक्षा से अनित्य है। इस प्रकार प्रत्येक पदार्थ को न एकान्त नित्य और न एकान्त अनित्य माना जा सकता है, अपितु नित्यानित्य उभय रूप से ही मानना युक्तियुक्त है और यही अनेकान्तवाद है।
अस्ति-नास्तिवाद :
अनेकान्त सिद्धान्त सत् और असत् के सम्बन्ध में भी उभयस्पर्शी दृष्टि रखता है। कितने ही सम्प्रदायों में प्रायः ऐसा कहा जाता है--'वस्तु सर्वथा सत् है।' इसके विपरीत दूसरे सम्प्रदाय कहते हैं-'वस्तु सर्वथा असत् है।' और, इस पर दोनों ओर से संघर्ष होता है, वाग्यद्ध होता है। अनेकान्तवाद ही वस्तुतः इस संघर्ष का सही समाधान कर सकता है।
अनेकान्तवाद कहता है कि प्रत्येक वस्तु सत् भी है और असत् भी। अर्थात् प्रत्येक पदार्थ 'है' भी और 'नहीं' भी। अपने निजस्वरूप से वह है और दूसरे पर-स्वरूप से वह नहीं है। अपने पुत्र की अपेक्षा से पिता पितारूप से सत् है, और पर-पुत्र की अपेक्षा से पिता पितारूप से असत् है। यदि वह पर-पुत्र की अपेक्षा से भी पिता ही है, तो सारे संसार का पिता हो जाएगा, और यह कदापि सम्भव नहीं है।
कल्पना कीजिए--सौ घड़े रखे हैं। घड़े की दृष्टि से तो वे सब घड़े हैं, इसलिए सत् हैं। परन्तु घट से भिन्न जितने भी पट आदि अघट है, उनकी दृष्टि से असत् हैं। प्रत्येक घड़ा भी अपने गुण, धर्म और स्वरूप से ही सत् है, किन्तु अन्य घड़ों के गुण, धर्म और स्वरूप से सत् नहीं है। घड़ों में भी आपस में भिन्नता है न ? एक मनुष्य अकस्मात् किसी दूसरे के घड़े को उठा लेता है, और फिर पहचानने पर यह कह कर कि यह मेरा नहीं है, वापस रख देता है। इस दशा में घड़े में असत् नहीं, तो और क्या है ? 'मेरा नहीं है इसमें
विश्वतोमुखी मंगलदीप : अनेकान्त
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