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तीसरा कान पकड़नेवाला अन्धा बोला--"आँखें काम नहीं देतीं तो क्या हुआ, हाथ तो धोखा नहीं दे सकते। मैंने उसे टटोलकर देखा था, वह ठीक छाज (सूप) जैसा था।"
चौथे दाँत पकड़नेवाले सूरदास बोले-"अरे! तुम सब झूठी गप्पे मारते हो! हाथी तो कुश यानी कुदाल-जैसा था।"
पाँचवें पैर पकड़नेवाले महाशय ने कहा--"अरे ! कुछ प्रभु का भी भय रखो । नाहक क्यों झूठ बोलते हो? हाथी तो खम्भे जैसा था। मैंने खूब टटोल-टटोल कर देखा है।"
छठे पेट पकड़नेवाले सूरदास गरज उठे--"अरे ! क्यों बकवास करते हो? पहले पाप किए तो अन्धे हुए, अब व्यर्थ का झूठ बोल कर क्यों उन पापों की जड़ों में पानी डालते हो? हाथी तो भाई में देखकर आया हूँ। वह अनाज भरने की एक बड़ी कोठी-जैसा है।"
__ अब क्या था, आपस में वायुद्ध ठन गया। सब एक-दूसरे की भर्त्सना करने लगे और लगे परस्पर गाली-गलौज करने।
सौभाग्य से इसी बीच वहाँ आँखोंवाला एक सज्जन व्यक्ति आ गया। अन्धों की तू-तू, मैं-मैं सुनकर उसे हँसी आ गई। सज्जन था न, अतः दूसरे ही क्षण उसका मुख-मण्डल गम्भीर हो गया। उसने सोचा-“भूल हो जाना अपराध नहीं है, किन्तु किसी की भूल पर हँसना तो घोर अपराध है।" उसका हृदय करुणार्द्र हो गया। उसने कहा--"बन्धों , क्यों झगड़ते हो? जरा मेरी भी बात सुनो। तुम सब सच्चे भी हो, और झूठे भी। तुम में से किसी ने भी हाथी को पूरा नहीं देखा है। एक-एक अवयव को लेकर हाथी की पूर्णता का बखान कर रहे हो। कोई किसी को झूठा मत कहो, एक-दूसरे के दृष्टिकोण को समझने का प्रयत्न करो। हाथी रस्से-जैसा भी है, पूंछ की दृष्टि से। हाथी मुसल-जैसा भी है, संड़ की अपेक्षा से। हाथी छाज-जैसा भी है, कान की ओर से । हाथी कुदाल-जैसा भी है, दाँतों के लिहाज से। हाथी खम्भे-जैसा भी है, पैरों की अपेक्षा से । हाथी अनाज की कोठी-जैसा भी है, पेट की दृष्टि से।" इस प्रकार समझा-बुझाकर उस सज्जन ने एकान्त की आग में अनेकान्त का पानी डाला। अन्धों को अपनी भल समझ में आई। और, सब शान्त होकर कहने लगे--"हाँ, भाई ! तुमने ठीक समझाया। सब अंगों को मिलाने से ही हाथी बनता है, एक-एक अलग-अलग अंग से नहीं !"
वस्तुतः अंधों ने हाथी के एक-एक अंश को देखा और उसी पर हाथी की समग्रता का हठ करने लग गए। आँख वाले सज्जन ने हाथी के विभिन्न अंशों का समन्वय कर, जब उन्हें हाथी के सही रूप को समझाया, तब कहीं उनका विग्रह समाप्त हो पाया।
संसार में जितने भी एकान्तवादी आग्रही सम्प्रदाय हैं, वे पदार्थ के एक-एक अंश अर्थात् एक-एक धर्म को ही पूरा पदार्थ समझते हैं। इसीलिए दूसरे धर्म वालों से लड़तेझगड़ते हैं। परन्तु, वास्तव में वह पदार्थ नहीं, पदार्थ का एक अंश-मात्र है। स्यादवाद आँखों वाला दर्शन है। अत: वह इन एकान्तवादी अन्धे दर्शनों को समझाता है कि तुम्हारी मान्यता किसी एक दृष्टि से ही ठीक हो सकती है, सब दृष्टि से नहीं। अपने एक अंश को सर्वथा सब अपेक्षा से सत्य, और दूसरे अंशों को सर्वथा असत्य कहना, बिल्कुल अनुचित है। स्याद्वाद इस प्रकार एकान्तवादी दर्शनों की भूल बताकर पदार्थ के सत्य स्वरूप को आगे रखता है और प्रत्येक सम्प्रदाय को किसी एक अपेक्षा से ठीक बतलाने के कारण साम्प्रदायिक कलह को शान्त करने की अद्भुत क्षमता रखता है। केवल साम्प्रदायिक कलह को ही नहीं, यदि स्याद्वाद का जीवन के हर क्षेत्र में प्रयोग किया जाए, तो क्या परिवार, क्या समाज, और क्या राष्ट्र, सभी में प्रेम एवं सद्भावना के सुखद वातावरण का निर्माण हो सकता है । कलह और संघर्ष का बीज एक-दसरेकेदष्टिकोण को न समझने में ही है। स्यादवाद दसरे के दृष्टिकोण को समझने में सहायक होता है।
यहाँ तक स्याद्वाद को समझने के लिए स्थूल लौकिक उदाहरण ही काम में लाए गए हैं। अब दार्शनिक उदाहरणों का मर्म भी समझ लेना चाहिए। यह विषय जरा गम्भीर है, अतः यहाँ सूक्ष्म निरीक्षण-पद्धति से काम लेना अधिक अच्छा होगा।
विश्वतोमुखी मंगलदीप : अनेकान्त
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