SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 97
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२ षडावश्यकबालावबोधवृत्ति [56 - 557 ). ८५-८८ प्रतिभासइ तेतीवार सर्वक्षु कहियइ । जेतीवार विशेषधर्मु गौणु प्रतिभासइ सामान्यधर्मु मुख्यु प्रतिभासइ तेतीवार सर्वदर्शी कहियइ । दोषु को न होयई । ईहां बहु' कहिवउं छइ । पुणि विस्तरता कारणि लिखिउं नहीं । जु को विस्तर जोयइ तिणि नंदिवृत्ति हूंतउ जाणिवउ । ईहां मुग्धजन तर्कवादु परीछई नहीं तेह कारणइतउ पुण लिखिउ नहीं। 'सिवु' निरुपद्रवु । अचल चलनक्रियारहितु । अरुजु 5 रोगविवर्जितु । अनंतु अनंतज्ञातव्यवस्तु ज्ञानसंजोगइतउ । अक्षउ क्षयहेतु तणा अभावइतउ । अव्याबाधु अमूर्तभावइतउ'। $56) अपुनरावृत्ति आवृत्तिहेतु कर्म तणा अभावइतउ । जइ किमइ संसारहेतु कर्म तणइ अभाविहिं बौद्धमत जिम जिन रहई संसारि अवतार कहियइ तउ दोषु बोद्ध रहइं कहियइ सु जिन रहई पुणि आवइ । तथा हि10 जइ किमइ अकारणु संसारु कहियइ तउ सदा संसारु जीव रहइं हुयइ । मोक्षु कदाचितू न हुयई । संसारकारणाभाव रहई मुक्तहं रहई सदा भावइतउ । अथवा सदा संसाराभावु मोक्षु जु जीव रहइं हुयइ, न पुणि कदापिहिं संसारु । सकारणही जि वस्तु रहई कारणसंभवि भावु, कारण तणइ असंभवि अभावु हुयइ । तथा च भणितं नित्यं सत्त्वमसत्त्वं वाऽहेतोरन्याननपेणात् । 15 अपेक्षातो हि भावानां कादाचित्कत्वनिश्चयः ॥ [८५] इति संक्षेपिहिं अपुनरावृत्तिस्थापना । विस्तरइतउ ललितविस्तरावृत्ति हूंतउ अपुनरावृत्ति स्थापना प्रकारु जाणिवउ । सिद्धिगइनामधेयं ठाणं' ति । 'सिद्धिगई' इसउं नामधेउ नामु जेह स्थान रहइं सु सिद्धिगतिनामधेउ स्थानु कहियइ । तिहां जि संप्राप्त पहुता जिन राग-द्वेष-मोह जयकारक । 'जियभय' पूर्वोक्त 20 सप्तविध भयरहित । तीहं निमित्तु नमस्कारु । पुनरपि अंति नमो इसउं पदु सवहीं मध्यपदहं नमस्कारपदसंबंध निमित्तु कीधउं । वली वली नमस्कारपदभणनि कीजतेई पुनरुक्ति दोषु न हुयइं । स्तुतिसद्भावइतउ । तथा च भणितं सज्झाय-झाण-तवो-सहेसु उवएस-थुइ-पयाणेसु । संतगुणकित्तणासुं न हुंति पुणरुत्तदोसाओ । [८६] 25 जिन रहई जन्ममहोत्सवादि समइ शक्रु इसी परि स्तवइ इणि कारणि एउ शक्रस्तवु कहियइ इस नहीं, शक्रि एउ कीधउ इणि कारणि शक्रस्तवु कहियइ । श्रीगणधरदेवहं श्रीगौतमस्वामि श्रीसुधर्मस्वामिप्रभृतिकहं कृतत्वइतउ 'सुत्तं गणहररइयं' इति वचनात् । $57) अथ प्रणिपात दंडक तणी नवसंपदादिपदावयव तथा अंतिम पद कहियई । नमुथू' १ आइग २ पुरिसो ३ लोगो ४ भय ५ धम्म ६ अप्प ७ जिण ८ सव्व ९ । सकथय संपयाणं पढमुल्लिंगणपया नेया ॥ [८७] भगवंताणं पढमा सयंसंबद्धाणं तह भवे बीया । पुरिसवरगंधहत्थीणं तइया चउत्थिया लोयपजोए । [८८] $55) 1 Bh. अमूर्तता। $56) 1 Bh. कदाचित्कत्व। $57) 1 नमोत्थूर्ण । 30 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003394
Book TitleShadavashyaka Banav Bodh Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabodh Bechardas Pandit
PublisherBharatiya Vidya Bhavan
Publication Year1976
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy