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________________ 10 20 $578-80). ८२६-८२७ ] श्रीतरुणप्रभाचार्यकृत $578) अथ धारिणी मणिप्रभ' वृत्तांतु मूललगी कही करी प्रवर्तिनी रहई वीनवइ, “ए सहोदर भाई बे अज्ञानभावइतउ राज्यकारणि विढई छई। जुउ तुम्हे भणउ तउ हां वारउं । तउ पाछइ प्रवर्तिनी अनुज्ञात हूंती धारिणी साध्वी माणिप्रभ आगइ सर्व स्वरूपु कही करी भणइ । “तू रहई वडा भाई सउं युद्ध करिवा न बूझियई।" इसी परि भणिउ इंतउ अभिमान लगी जउ निवर्त्तइ नहीं तउ पाछइ धारिणी अवंतिसेन कन्हइ शीघ्र गई। अवंतिसेनि प्रणमी करी पूछी हूंती' सगल्लू वृत्तांतु कहइ । “वच्छ ! 5 आपणा अनुज लहुडा भाई सउं किस झूझु?" तउ पाछइ संग्राम संरंभु मूंकी करी मणिप्रभ मिलिवा निमित्तु अवंतिसेनु ससेनु हूंतउ चालिउ । मणिप्रभु पुण अवंतिसेनु मिलिवा आवतः सांभली करी साम्हउ आविउ । जेतीवार दृष्टिमेलावउ हूयउ' तेतीवार बे वाहन हूंतां ऊतरी करी आपणपा माहि हिया माहि जिम पइसणहार हुयइंतिम साईए आविया। महाप्रवेशक महोत्सवपूर्व नगरी माहि आविया। केतलाई दिवस प्रेमानुबंधु वश हूंता तिहां रही करी अवंती ऊपरि चालियां। 8579) तीहं समामंत्रित हूंती व्रतिनी पुण सरसी चाली । मार्गि जायतां हूतां वच्छगा नदी नइ तटि कटक वसियां । ति महासती गिरिकंदर हूंतउ ऊतरतउ चडतउ लोकु अस्तोकु' देखी पूछई। लोकमुखइतउ धर्मयशामुनि तिहां पादपोपगमान अनसनि वर्तमान सांभलइ । तेहे राजेंद्रहं आगइ कहिउँ । तउ पाछइ राजेंद्र सहित हूंती व्रतिनी गिरिकंदर पहुती। मुनि नमस्करिउ । महिमा महांत करावी राजेंद्र चालणहार हुतां व्रतिनी पुण सरिसी तेडई । व्रतिनी भणइं, “अम्हे अनसनी मुनि मूर्की 15 करी नहीं आवउं" । तउ पाछइ राजेंद्र पुण रहिया । नितु नितु महात्मा रहई वांदई, पूजई। रास, भास, गीत, नाच, नाद, पूजा करावई । महासती आराधनाऽमृतु' पानु करावइं। पंचपरमेष्ठि महामंत्रु समरावई। इसी परि धर्मयशा महऋषि रहई निस्पृहपत्ति भाविहिं हंतइ धर्मानुभावि शून्यहि स्थानि' महिमा हयउ। समाधि सहितु सु महाभागु स्वर्गसुख भाजनु हूयउ । जिणि धर्मघोषि महऋषि' पूजा तणी स्पृहा कीधी तेह रहई अपभ्राजना हुई। छिन्नोवहिपातवन्निजवपुः कृत्वा मनोप्यस्पृहं येनैवं मुनिपुङ्गवेन विदधे प्रायो वतं निस्तुषम् । शून्येभून्महिमास्य धर्मयशसोऽन्यथाऽन्यत्र तु श्रुत्वेति क्रियतां तदित्थमसुमानुच्चैर्गतिं लभ्यताम् ।। _ [८२६] इति जीवितमरणाशंशा' विषइ धर्मयश कथा, अन्वयविषइ व्यतिरेकविषइ3 धर्मघोषकथा 25 $580) सगलो ई अतीचारु योगत्रय हूंतउ हुयइ इणि कारणि योग उद्दिशी योगेई जि करी पडिकमतउ भणइ कारण काइयस्सा पडिक्कमे वाइयस्स वायाए । मणसा माणसियस्स' सव्वस्स वयाइयारस्स ॥ [८२७] वधबंधादिकारकि कायि करी कीधउ व्रतातीचारु कोइकु वध' बंधादिक अतीचारु तेह रहई 30 काह जि तपः कायोत्सर्गादि अनुष्ठानकारकि करी 'प्रतिकामेत्' किसउ अर्थ ? निवर्तिजिउ इसी परि। 'वाएण' वनि करी यथा 'चोरु त परदारगामी तउं' इसी परि सहसाभ्याख्यान दानादिरूप छह वाणी तिणि करी कधिउ जु सु वाचिकु तेह रहई वाइहिं जि करी यथा मिच्छामिदुक्कडदानलक्षण छइ वाणी तिणिहि जि करी 'प्रतिकामेत्' निवर्तिजिउ । $578) 1 P. मुणि-1 2 P. वेढई। 3 P. जउ । 4 Bh. adds धारिणी । 5 P. आवता। 6 P. सामुहउं । 7 P. हुअउ। 8 P. उतारी। 8579)1P. omits. P. omits. 3 Bh. राजेंद्रह । 4 B. Bh. गरि-15 Bh. P. मुंकी। 6Bh. omits. 7. Bh. -मृत । 8 P. महा-। 9 P. स्थान । 10 P. हूअउ। 11 P.-ऋिषि (?)। 12 P.-शंसा । 13 P. omits. $580) 1 B. Bh. have-स्सा। 2 B. Bh. बंध । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003394
Book TitleShadavashyaka Banav Bodh Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabodh Bechardas Pandit
PublisherBharatiya Vidya Bhavan
Publication Year1976
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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