SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 272
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 15 ,549-552 ) ७९८-८०३] श्रीतरुणप्रभाचार्यकृत $549) जेतलइ नगर बाहिरउ नीसरिउ तेतलइ उद्यान माहि धर्मोपदेशामृतवृष्टि करी भव्यपादपवनी सींचतउ शुद्धप्रभाभिधानु प्रधानु मुनि देखइ । वांदी, धर्मदेशना सांभली, कृत्याकृत्य विवेक जाणी करी, तीही जि कन्हइ दक्षु दीक्षाग्रहणु करइ । सुद्ध चरित्रु प्रतिपाली करी अंतकालि समाधिसहितु आयु पूरी सौधर्म देवलोकि महर्द्धिकु देवु हूयउ । सुदत्तु श्रेष्ठि पुण आपण आयु पूरी करी महाराज ! एउ तुम्हारउ मंत्री मित्राणंदु हूयउ। सम्पत्सु ह्रियमाणासु यदभञ्ज न पौषधम् । पदे पदे च तेनायं विचित्राः प्राप सम्पदः॥ [७९८] स तु चौरः सुरीभूतः स्मरन्नुपकृतीः कृती। चिन्ताय ददी रत्नं प्रस्तावं प्राप्य मान्त्रिणे ॥ [७९९] $550) राजा भणइ भगवन्, “वली तेह देव रहई मंत्री देखिसिइ ? " मुनि भणइ, “मंत्रि 10 रहई जदाकालि' जीवितांतु होइसिइ तदाकालि तेह देव तणउं दर्शनु मुक्ति हेतु होइसिइ। जिणि कारणि नंदीश्वरि तीथि देववंदना मनोरथि मंत्री रहई हूयइ हूतई प्रस्तावक्षु सु देवु विमानु आणी देसिइ । तिणि विमानि चडिया मंत्री रहई जायता हूंता शुद्ध शुक्लध्यानानुभावि लवणसमुद्र ऊपरि थिका' केवलज्ञानप्राप्ति, आयु क्षिइ, मुक्ति होइसिइ ।” इस मुनि वचनु सांभली करी राजादिकलोक महाधर्मवासि वासित मानस हूंता सानंद निज निज मंदिरि गया। श्री मित्राणन्द मन्त्रीन्दोः श्रुत्वा पौषधसत्फलम् । सुमेधसः स्थिरध्यानास्तत्कुर्वन्तु सुपर्वसु ॥ [८००] इति पौषधव्रत विषइ मित्राणंद कथा। $551) अथातिथि संविभागव्रतविचारु लिखियइ । तत्र तिथि भणियई-लोकव्यवहार पर्व 'ति' जेहे मेल्हियाति अतिथि कहिई, साधु । तथा चोक्तं-20 तिथिः पर्वोत्सवाः सर्वे मुक्ता येन महात्मना । अतिथि तं विजानीयाच्छेषमभ्यागतं विदुः ॥ [८०१] तीहं रहई 'संविभागु' किसउ अर्थ ? निर्दोषु प्रासुकेषणीय जि छइं अन्नपान तीहं तणउं पश्चास्कर्मादि दोषपरिहार पूर्व विशुद्ध श्रद्धा प्रकर्षि वर्तमान हूंतां आत्मानुग्रह बुद्धि करी जु दानु सु अतिथि संविभागु कहियइ। 25 ईहां एउ विधि । जिणि श्रावकि पोसहु कीधउ हुयइ तिणि अवश्यु अतिथि संविभागु आसेविवउ, पारणउं तउ करिखं जउ महात्मा रहई संविभागु कराविउ हुयइ । अनेरां रहई अनियम । किसउ अर्छ ? यथा समाधि । यदाह पढमं जईण दाऊण अप्पणा पणमिऊण पारेइ । असई य सुविहियाणं भुंजइ कयदिसालोओ ॥ [८०२] 80 3552) अत्रातिचार प्रतिकमणनिमित्तु भणइ। सच्चित्ते निक्खिवणे १ पिहिणे २ ववएस ३ मच्छरे ४ चेव । कालाइक्कमदाणे ५ चउत्थे सिक्खावए निंदे ॥ [८०३] 5549) 1 P. omits. 2 Bh. places it after मित्राणंदु। 3P. हुअउ । 8550) 1 P. यदा-1 2 P. जीवतां तुम्हे । 3 P. omits. 4 P. थका । 8551) 1 Bh. कहियई। 2 Bh. करिव । 8552)1'B. Bh. have- निकखमणे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003394
Book TitleShadavashyaka Banav Bodh Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabodh Bechardas Pandit
PublisherBharatiya Vidya Bhavan
Publication Year1976
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy