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डावश्यक बाला बोधवृत्ति
[ $214-218 ) २१०-२१३ कहियइ, ज्वररोगी ज्वरी कहियइ, चक्षुर्बलहीनु अंधु कहियइ, बालकु लहुडउ भोलउ अव्यक्तु कहियइ, छाकिउ मत्तु कहियइ, भूताधिष्ठितु उन्मत्तु कहियइ, कर-चरणरहितु कर-चरणछिन्नु कहियइ, गलितदेहु पगलिउ कहियइ,' अठील घातिउ निगडित कहियइ, हाथे हथंडू' जेह रहई हुयइ सु अंडुउ कहियइ, चाखडी जेह ने पगे हुयई सु पाऊयारूदु कहियइ, जु खांडतर हुयइ, जु पीसतउ हुयइ, जु विलोयतउ 5 हुयइ, जु भुंजत हुयइ, जु काततउ हुयइ, जु लोढतउ हुयइ, जु चीरि' वणतउ हुयइ, जु पींजतउ हुइ, जु दलतर हुयइ, जु जीमतउ हुयइ, ज गुर्विणी आसन्नप्रसव हुयइ, मास २-३ प्रमाण बाल ज स्त्री स बालवत्स कहियइ, बालकु मेल्ही नइ विहरावइ, तथा जु छज्जीवकाय फरसतउ विणास उ लांखत साधारणु चोरानीतु वस्तु दियतउ हुयइ, एवमादि दायक नइ हाथि मुनि जउ दानु लियइ तर दायकदोषु ६ ।
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(215) जु द्रव्यु जलादिकु प्रासुकु हूयडं न हुयई कांई प्राकु कांईं अप्रासुकु हुयइ सु अपरिणतु द्रव्यु अथवा अनेकहं दायकहं माहि एक दायक तणउ भावु दानपरिणतु हुयइ बीजा दायक तण भावु दानपरिणतु न हुयई सु भावाऽपरिणतु अथवा यति एक नइ मनि प्रासुकु द्रव्यु परिणमिउं 15 बीजा नइ मनि प्राकु न परिणमिडं सु पुणि भावापरिणतु, सु वस्तु जउ' यति लियइ तउ अपरिणतु दोषु ८ । (216) जिणि वस्तु करंबादिकि दधिप्रभृतिवस्तु तणउ लेपु दायक तणइ हाथि अथवा मात्रक (पात्रकि ? ) लागइ सु वस्तु जउ यति लियइ तर लिप्तु दोषु, तिणि पश्चात्कर्मादिक दोष हुयईसचित्तजलादि करी हस्तादिप्रक्षालनादि दोष हुई इस अर्थ ९ |
(214) योग्य घृतादिकु अयोग्य मधुप्रभृतिकु, योग्यायोग्य बे मेली करी दियइ त उन्मिथु, तत्र सचित्तमिश्रु कदाकालिहिं उत्सर्गपदि न कप्पई, अचित्तमिश्रि विभाषा ७ ।
(217) जिणि आहारि दीजतइ परिसाडि भुई रेडणउं संभवइ भवइ वा सु आहारु यति जउ 20 परिसाडि देखतउ लियइ तउ छर्दितु दोषु १० । एउ पुणि मधुबिंदु उदाहरणइतर अतिदुष्टु कहियइ । ए दस एषणादोष गृहस्थ अनइ यति बिहुं मिलियां कीजई ।
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(218) अथ भोजन तणा पांच दोष कहियई - संयोजना दोषु १, अप्रमाणु दोष २, अंगारु दोषु ३, धूमु दोषु ४ । अकारणु दोषु ५ । तत्र स्वाद तणइ कारणि द्रव्यसंयोग करइ त संयोजना १ । प्रमाणाधिक आहारु करइ त अप्रमाणु २ । तथा च भणितं -
तथा
धि-बल-संजम - जोगा जेण न हायंति संपइ पए वा । तं आहारपमाणं जइस्स सेसं किले सफलं ।।
[२११]
बत्तीस किरकवला आहारो कुक्खिपूरओ भणिओ । पुरिसस्स महिलयाए अट्ठावीसं भवे कवला || जेण अबहु अइबहुसो अइप्पमाणेण भोयणं भुतं । हादिज व वामिज व मारिज व तं अजीरंतं ॥ स्निग्धमधुरादि वस्तु सरागु थिकउ भोगवइ जउ त अंगारु दोषु ३ | कटुककषायादि वस्तु जउ सद्वेषु थिकउ जीमइ त धूमु दोष ४ |
[२१२]
(213) 1 Bh. कहइ ।
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2 B. हथुड् ।
3 Bh. अंडूर
[ २१० ]
4 B. Bh. वीरि । (215) 1 Bh. जइ ।
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