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________________ ___15 षडावश्यकबालावबोधवृत्ति [$137 - 138). १६९-१७४ अथ रत्नाधिकस्वरूपु कहियइ-रत्नाधिक रहइं गणावच्छेदकु इसउं बीजउं नामु उद्धावणा-पहावण-खित्तोवहिमग्गणासु अविसाई ।। सुत्तत्थ-तदुभयविऊ गणावच्छेओ एरिसो होइ ॥ [१६९] उद्धावणा उद्यतविहारु, पहावणा तीर्थोन्नतिकरणु, खित्तु क्षेत्रु वसति, उपधि साधूपकरणपरंपरा 5 तीह नी मार्गणा दोषरहितगवेषणा तींह नइ विषइ अविसाई आलस्यरहितु, एक सूत्रु धरइ अर्थं न धरई, एकु अथु धरइ सूत्रु न धरइ, जु बे धरइ सु सूत्रार्थ तदुभयविऊँ कहियइ इसउ जु हुयइ सु गीतार्थे रत्नाधिकु कहियइ । 'गणावच्छेओ एरिसो होइ' सु इसउ गणावच्छेदकु कहियइ-रत्नाधिकु कहियइ । चूर्णि माहि कहिउं यथा “अन्ने भणंति - अन्नो वि जो तहाविहो राइणिओ सो वंदियव्वो” । “राइणिओ सो जो नाण-दंसण-चरणसाहणेसु अइउज्जुओ" अतिउत्साहवंतु।। 10 $137) अथ कारण तणइ अभावि जि वांदिवा योग्य न हुयइं पांच अनधिकारिया ति कहियई पासत्थो १ ओसन्नो २ होइ कुसीलो ३ तहेव संसत्तो ४। अहच्छंदो ५ वि य एए अवंदणिजा जिणमयम्मि ।। [१७०] ज्ञानादिकहं तणइ पार्श्वि समीपि तिष्ठइ रहइ इणि कारणि पार्श्वस्थु कहियइ । सो पासत्थो दुविहो सव्वे देसे य होइ नायव्यो । सव्वम्मि नाण-दंसण-चरणाणं जो उ पासम्मि ॥ [१७१] देसम्मि य पासत्थो सिजायरऽभिहड रायपिंडं च । नीयं च अग्गपिंडं भुंजइ निकारणे चेव ॥ . [१७२] सिज्जायरु वसतिसामी' तेह तणइ घरि जु विहरइ असनादिकु सु सिज्जायरभिहडु । जु राजपिंडु 20 भोगवइ । तथा 'नीयं च नीच अच्छोपकुल रजकादिक तीहं संबंधिउं पिंडु नीचपिंडु कहियइ सु नीचपिंडु जु भोगवइ । तथा अग्रपिंडु अग्रबलि शिखाधान्यु नैवेद्यु कहियइ, जु अग्रपिंडु भोगवइ सु एवंविधु साधु देशपार्श्वस्थु कहियइ। __कुलनिस्साए विहरइ ठवणकुलाणि य अकारणे विसइ । __ संखडिपलोयणाए गच्छइ तह संथवं कुणइ ॥ [१७३] 25 ए माहरा कुल इसी परि जु कुलनिश्रा करी विहरइ, आचार्यादिकहं निमित्ति स्थापित जि छई कुल तेहे कुले कारण पाखइ जु विसई' भिक्षानिमित्ति पइसई । 'संखडिपलोयणाए' संखडि विशेषभक्त व्यापारगृहु तेह तेणी अवलोकना करी जु विहरइ तथा गृहस्थसंस्तवु जु करइ गृहस्थ सउं मैत्री जु करइ सगलू देशपार्श्वस्थु कहियइ। $138) क्रिया नइ विषइ थाकइ इति अवषन्नु' किसउ अथु ? शिथिलता करी मोक्षमार्ग 30 श्रांतु अवषन्नु । यथा ओसन्नो वि य दुविहो सव्वे देसे य तत्थ सबम्मि । उब्बद्धपीठफलगो ठवियगभोई य नायव्यो । [१७४ ] B. omits-य- $137) 1 Bh. स्वामी। 2 Bh.-भिहड। 8136)3 B. Bh. omit ए-1 4 3. एइसइ। $138) 1 Bh. अवषिन्नु । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003394
Book TitleShadavashyaka Banav Bodh Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabodh Bechardas Pandit
PublisherBharatiya Vidya Bhavan
Publication Year1976
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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