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अध्ययनं: १, उद्देशक:
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आलोय-निंद-वंदियए घोर-पच्छित्त-दुक्करे। लक्खोवसग्ग-निवासे य अट्ठकवलासि केवली। हत्योसरण-निवासे य अट्ठकवलासि केवली । एग-सित्यग-पछित्तो दस-वा से केवली तहा ।। पच्छित्ताढवगे चेव पच्छित्तद्ध-कय-केवली । पच्छित्त-परिसमत्तीय अठ्ठ-स-उक्कोस-केवली ।।
न सुद्धी विन पच्छित्ता ता वरं खिप्प केवली। एग काऊण पच्छित्तं बीयं न भवेजह चेव केवली ॥
तंचायरामि पच्छितं जेनागच्छइ केवली । तंचायरामि जेन तवं सफलं होइ केवली। किंपच्छित्तंचरंतोहं चिटुं नो तव-केवली। जिणाणमाणन लंघे हं पान-परिचयण-केवली ॥
अन्नं होही सरीरं मे नो बोही चेव केवली। सुलद्धमिणंसरीरेणं पाव-निड्डहण-केवली ।। अनाइ-पाव-कम्म-मलं निद्धोवेमीह केवली । बीयं तं न समायरियं पमाया केवली तहा॥ दे दे खवओ सरीरं मे निजरा भवउ केवली। सरीरस्स संजर्मसारं निक्कलंक तुं केवली॥ मनसा विखंडिए सीले पाणेनधरामि केवली । एवं वइ-काय-जोगेणंसीले रक्खे अहं केवली ॥
एवमादी अनादीया कालाओ नंते मुनी। केइ आलोयणा सिद्धे पच्छिता केइ गोयमा। खंता दंता विमुत्ता य जिइंदी सच्च-मासिणो।
छक्काय-समारंभाओ विरते तिविहेण उ॥ ति-दंडासव-विरया य इत्यि-कहा-संग-वञ्जिया। इत्थी-संलाव-विरया य अंगोवंग-ऽनिरिक्खणा॥
निम्ममत्ता सरीरे विअप्पडिबद्धा महायसा । भीया च्छि-दि-गमवसहीणं बहु-दुक्खउ भवाउ तहा।।
तो एरिसेण भावेणं दायव्वा आलोयणा । पच्छित्तं पिय कायव्वं तहा जहा चेवेएहिं कयं ।। न पुणो तहा आलोएयव्वं माया-डंभेण केणई। जह आलोएमाणाणांचेव-संसार-वुधी भवे ।। अनंते ऽ नाइकालाओ अत्त-कम्मेहिं दुम्मई। बहुविकल्प-कल्लोले आलोएंतो दी अहोगए।
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