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अध्ययनं : १, उद्देशक :
मू. (८१)
पू. (८२)
मू. (८३)
मू. (८४)
मू. (८५)
मू. (८६)
मू. (८७)
मू. (८८)
मू. (८९)
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आलोय-निंद-वंदियए घोर-पच्छित्त-दुक्क. रे । लक्खोवसग्ग-निवासे य अट्ठकवलासि केवली ॥ हत्थोसरण-निवासे य अट्ठकवलासि केवली । एग - सित्थग-पच्छित्तो दस-वा से केवली तहा ।। पच्छित्ताढवगे चैव पच्छित्तद्ध-कय-केवली । पच्छित्त-परिसमत्ती य अट्ठ-स-उक्कोस- केवली ॥ न सुद्धी विन पच्छित्ता ता वरं खिप्प केवली । एगं काऊण पच्छित्तं बीयं न भवे जह चेव केवली ॥ तं चायरामि पच्छित्तं जेनागच्छइ केवली । तं चायरामि जेन तवं सफलं होइ केवली ।। किं पच्छित्तं चरंतो हं चिट्ठे नो तव केवली । जिणाणमाणं न लंघे हं पान - परिच्चयण- केवली ॥ अन्नं होही सरीरं मे नो बोही चेव केवली । सुद्धमिणं सरीरेणं पाव-निड्डुहण- केवली ॥ अनाइ - पाव-कम्म-मलं निद्धोवेमीह केवली । बीयं तं न समायरियं पमाया केवली तहा ॥ दे दे खवओ सरीरं मे निज्जरा भवउ केवली । सरीरस्स संजमं सारं निक्कलंक तुं केवली ॥ मनसा वि खंडिए सीले पाणे न धरामि केवली । एवं वइ - काय जोगेणं सीले रक्खे अहं केवली ॥ एवमादी अनादीया कालाओ नंते मुनी । के आलोयणा सिद्धे पच्छित्ता केइ गोयमा ।। खंता दंता विमुत्ताय जिइंदी सच्च भासिणो । छक्काय-समारंभाओ विरते तिविहेण उ ॥ ति- दंडासव - विरया य इत्थि कहा- संग वज्जिया । इत्थी -संलाव - विरया य अंगोवंग - Sनिरिक्खणा || निम्ममत्ता सरीरे वि अप्पडिबद्धा महायसा । भीया च्छि-च्छि गर्भवसहीणं बहु-दुक्खउ भवाउ तहा ।। तो एरिसेण भावेणं दायव्वा आलोयणा । पच्छित्तं पि य कायव्वं तहा जहा चेवेएहिं कयं ॥ न पुणो तहा आलोएयव्वं माया-डंभेण केणई । जह आलोएमाणाणां चेव-संसार वुड्डी भवे ॥ अनंते S नाइकालाओ अत्त- कम्पेहिं दुम्पई । बहुविकल्प कल्लोले आलोएंतो वी अहोगए ।
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