________________
१३८
स्तुति तरंगिणी
विससेणभिहाणपहु अइरा, पटराणिय जस बहु तस जाय । गुणनायगु एण अंकधरो, मह होउ सुसंति पसंतिकरो ॥१६॥ सिरिसूरय सूरयरायसुउ, बहु बुद्धिविसेसुसजेस जउ । जिणकुंथु जियारिगणो सुमणो, मनासउ लोयमुक्खायदिणो ॥१७॥ जिणह स सुदंसणु ते जणउ, तुह देवियदेविय अंबजउं । पुण लंछणु नंदयवत्तु अहो, अरचंद जिणंद अमंदपहो ॥१८॥ गयदंभपभावइकुंभमवं, ओहिनाण पहायण रायनयं । सरणं करवाणि सुवाणिमुमुहं, सुहवल्लि-धनं पहु-मल्लिमहं
॥१९॥ तुहदेव सुमित्तु सुमित्तु पिया, जणणी पउमा पउमा-तुलया । जगरक्खण लक्खण कुम्मवरो, भव सुव्वय सुव्यय सुद्धिकरो ॥२०॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org