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________________ २६८ कुन्दकुन्दविरचितः [अ० ३, गा० १८एव स्यात् । ततस्तैस्तैः सर्वैः प्रकारैरशुद्धोपयोगरूपोऽन्तरङ्गच्छेदः प्रतिषेध्यो यैर्यैस्तदायतनमात्रभूतः परप्राणव्यपरोपरूपो बहिरङ्गच्छेदो दूरादेव प्रतिषिद्धः स्यात् ॥ १८ ॥ अथैकान्तिकान्तरङ्गच्छेदवादुपधिस्तद्वत्पतिषेध्य इत्युपदिशति हवदि व ण हवदि बंधो मदम्हि जीवेऽध कायचेम्हि । बंधो धुवमुवधीदो इदि समणा छडिया सव्वं ॥ १९॥ भवति वा न भवति बन्धो मृते जीवेऽथ कायचेष्टायाम् ।। बन्धो ध्रुवमुपधेरिति श्रमणास्त्यक्तवन्तः सर्वम् ॥ १९॥ ___ यथा हि कायव्यापारपूर्वकस्य परमाणव्यपरोपस्याशुद्धोपयोगसद्भावासद्भावाभ्यामनैकान्तिकबन्धलेन छेदसमनैकान्तिकमिष्टं, न खलु तथोपधेः, तस्य सर्वथा तदविनाभाविवप्रसिद्धयशुद्धोपयोगपरिणतपुरुषः षड्जीवकुले लोके विचरन्नपि यद्यपि बहिरङ्गद्रव्यहिंसामात्रमस्ति तथापि निश्चयहिंसा नास्ति । ततः कारणाच्छुद्धपरमात्मभावनाबलेन निश्चयहिंसैव सर्वतात्पर्येण परिहर्तव्येति ॥ १८ ॥ अथ बहिरङ्गजीवघाते बन्धो भवति न भवति वा परिग्रहे सति नियमेन भवतीति प्रतिपादयति-हवादि व ण हवदि बंधो भवति वा न भवति बन्धः कस्मिन्सति मदम्हि जीवे मृते सत्यन्यजीवे । अध अहो। कस्यां सत्याम् । कायचेट्टम्हि कायचेष्टायाम् । तर्हि कथं बन्धो भवति । बंधो धुवमुवधीदो बन्धो भवति ध्रुवं निश्चितम् । कस्मादुपधेः परिग्रहात्सकाशादिति हेतोः समणा छड्डिया सव्वं श्रमणा महाश्रमणाः जिन जिन भावोंसे शुद्धोपयोगरूप अन्तरङ्गसंयमका सर्वथा घात हो, उन भावोंका निषेध है, और अन्तरङ्गसंयमके घातका कारण, परजीवकी बाधारूप बहिरङ्गसंयमका भी घात सर्वथा त्याज्य है ॥१८॥ आगे सर्वथा अन्तरङ्गसंयमका घातक होनेसे मुनिको परिग्रहका सर्वथा निषेध करते हैं-[अथ] आगे अर्थात् मुनिको परिग्रहसे संयमका घात दिखाते हैं, कि [कायचेष्टायां] मुनिकी हलन चलन क्रियाके होनेसे [जीवे] त्रस स्थावर जीवके [मृते सति] मरनेपर [हि] निश्चयसे [बन्धः] कर्मलेप [भवति] होता है, [वा] अथवा [न] नहीं भी [भवति होता है। किन्तु [उपधेः] परिग्रहसे [बन्धः] बन्ध [ध्रुवं] निश्चयसे होता ही है। [इति] ऐसा जानकर [श्रमणाः] महामुनि अरहंतदेव [सवें] समस्त ही परिग्रहको पहले ही [त्यक्तवन्तः] छोड़ते हैं । भावार्थ-मुनिके हलन चलनादि क्रियासे परजीवका जो घात होता है, उस घातसे मुनिके सर्वथा बन्ध नहीं होता, होता भी है, और नहीं भी होता है, यहाँ अनेकान्त है, एक नियम नहीं। क्योंकि यदि अन्तरङ्ग शुद्धोपयोग है, तो बन्ध नहीं होता। इसलिये बाह्य परप्राण घातसे शुद्ध अशुद्ध उपयोगके होने या न होनेसे बन्ध होता भी है, और नहीं भी होता है । मुनिके परजीवके घातसे बन्ध होवे भी, और न भी होवे, परन्तु यदि मुनि परिग्रहका ग्रहण करें, तो बन्ध होवे भी न भी होवे, ऐसा नहीं है। किन्तु निश्चयसे बन्ध होता है। क्योंकि परिग्रहके ग्रहणसे सर्वथा अशुद्धोपयोग होता है। अतः अन्तरङ्गसंयमका घात होनेसे बन्ध निश्चित है । अन्तरङ्ग अभिलाषाके विना परिग्रहका ग्रहण कदाचित् नहीं होता, अन्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003289
Book TitlePravachanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1964
Total Pages612
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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