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________________ २४३ १०८] प्रवचनसारः तस्मात्तथा ज्ञाखात्मानं ज्ञायकं स्वभावेन । परिवर्जयामि ममतामुपस्थितो निर्ममखे ॥ १०८॥ - अहमेष मोक्षाधिकारी ज्ञायकस्वभावात्मतत्त्वपरिज्ञानपुरस्सरममवनिर्ममबहानोपादानविधानेन कृत्वान्तरस्याभावात्सर्वारम्भेण शुद्धात्मनि प्रवर्तते । तथाहि-अहं हि तावत् ज्ञायक एव स्वभावेन, केवलज्ञायकस्य च सतो मम विश्वेनापि सहजज्ञेयज्ञायकलक्षण एव संबन्धः न पुनरन्ये स्वस्वामिलक्षणादयः संबन्धाः। ततो मम न कचनापि ममलं सर्वत्र निर्ममखमेव । अथैकस्य ज्ञायकभावस्य समस्तज्ञेयभावस्वभावखात्मोत्कीर्ण लिखितनिखातकीलितमज्जितसमावर्तितप्रतिबिम्बितवत्तत्र क्रमप्रवृत्तानन्तभूतभवद्भाविविचित्रपर्यायमाग्भारमगाधस्वभावं गम्भीर परमात्मानम् । किंविशिष्टम् । जाणगं ज्ञायकं केवलज्ञानाद्यनन्तगुणस्वभावम् । केन कृत्वा ज्ञात्वा । सभावेण समस्तरागादिविभावरहितशुद्धबुद्धैकस्वभावेन । पश्चात् किं करोमि । परिवज्जामि परि समन्ताद्वर्जयामि । काम् । ममत्तिं समस्तचेतनाचेतनमिश्रपरद्रव्यसंबन्धिनी ममताम् । कथंभूतः सन् । उवद्विदो उपस्थितः परिणतः । क । णिम्ममत्तम्मि समस्तपरद्रव्यममकाराहंकाररहितत्वेन निर्ममत्वलक्षणे परमसाम्याभिधाने वीतरागचारित्रे तत्परिणतनिजशुद्रात्मस्वभावे वा। तथाहि-अहं तावत्केवलज्ञानदर्शनस्वभावत्वेन ज्ञायकैकटोत्कीर्णस्वभावः । तथाभूतस्य सतो मम नु केवलं स्वस्वाम्यादयः प्ररद्रव्यसंबन्धा न सन्ति । निश्चयेन जेयज्ञायकसंबन्धो नास्ति । ततः कारणात्समस्तपरद्रव्यममत्वरहितो भूत्वा परमसाम्यलक्षणे निजशुद्धात्मनि मार्गरूप शुद्ध आत्माकी प्रवृत्ति दिखलाते हैं-[तस्मात् ] इस कारणसे अर्थात् जो मुक्त हुए हैं, वे शुद्धात्माके श्रद्धान, ज्ञान, आचरणसे हुए हैं, इस कारणसे [तथा] उसी प्रकार अर्थात् जैसे तीर्थंकरादिकोंने स्वरूप जानके शुद्धात्माका अनुभव किया है, उसी तरह मैं भी [स्वभावेन] अपने आत्मीक भावसे [ज्ञायकं] सकल ज्ञेयपदार्थोंको जाननेवाले [आत्मानं] आत्माको [ज्ञात्वा] समस्त परद्रव्यसे भिन्न जानकर [ममतां] पर वस्तुमें ममत्वबुद्धिको [परिवर्जयामि] सब तरहसे छोड़ता हूँ, और [निर्ममत्वे] स्वरूपमें निश्चल होके वीतराग भावमें [उपस्थितः] स्थित होता हूँ। भावार्थजो पुरुष मोक्षका इच्छुक है, वह ज्ञानस्वरूप आत्माका जाननेवाला होता है, इसके बाद ममता भावका त्यागी होके वीतरागभावोंका आचरण करता है, तथा अन्य सब कार्य मिथ्या भ्रमरूप समझकर सब 'प्रकारके उद्यमवाला होके शुद्धात्मामें प्रवर्तता है । उस प्रवृत्तिकी रीति इस तरह है-मैं निजस्वभावसे ज्ञायक (जाननेवाला) हूँ, इस कारण समस्त परवस्तुओंके साथ मेरा ज्ञेयज्ञायक सम्बंध है, लेकिन वे पदार्थ मेरे हैं, मैं उनका स्वामी हूँ, ऐसा मेरा सम्बंध नहीं है । इसलिये मेरे किसी परवस्तुमें ममत्वभाव नहीं है, सबमें ममताभाव रहित हूँ, और जो मैं एक स्वभाव हूँ, सो मेरा समस्त ज्ञेयपदार्थोंका जानना स्वभाव है, ईस कारण वे ज्ञेय मुझमें ऐसे मालूम होते हैं, कि मानों प्रतिमाकी तरह गढ़ दिये हैं, वा लिखे हैं, या मेरेमें समा गये (मिल गये) हैं, या कीलित हैं, या डूब गये हैं, वा पलट रहे हैं, अथवा प्रतिबिंबित हैं, इस तरह मेरे ज्ञेयज्ञायक संबंध है, अन्य कोई भी संबंध नहीं है। इसलिये अब मैं मोहको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003289
Book TitlePravachanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1964
Total Pages612
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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