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________________ २३४ कुन्दकुन्दविरचितः .. [अ० २, गा० १००एवं ज्ञानात्मानं दर्शनभूतमतीन्द्रियमहार्थम् । ध्रुवमचलमनालम्बं मन्येऽहमात्मकं शुद्धम् ॥ १० ॥ आत्मनो हि शुद्ध आत्मैव सदहेतुकलेनानाद्यनन्तवात् स्वतः सिद्धवाच ध्रुवो न किंचनाप्यन्यत् शुद्धखं चात्मनः परद्रव्यविभागेन स्वधर्माविभागेन. चैकखात् । तच्च ज्ञानात्मकखादर्शनभूतखादतीन्द्रियमहार्थवादचलखादनालम्बखाच । तत्र ज्ञानमेवात्मनि बिभ्रतः स्वयं दर्शनभूतस्य चातिशयपरद्रव्यविभागेन स्वधर्माविभागेन चास्त्येकखम् । तथा प्रतिनियतस्पर्शरसगन्धवर्णगुणशब्दपर्यायग्राहीण्यनेकानीन्द्रियाण्यतिक्रम्य सर्वस्पर्शरसगन्धवर्णगुणशब्दपर्यायग्राहकस्यैकस्य सतो महतोऽर्थस्येन्द्रियात्मकपरद्रव्यविभागेन स्पर्शादिग्रहणात्मकस्वधर्माविभागेन चास्त्येकलम् । तथा क्षणक्षयप्रवृत्तपरिच्छेद्यपर्यायग्रहणमोक्षणाभावेनाचलस्य परिच्छेद्यपर्यायात्मकपरद्रव्यविभागेन तत्प्रत्ययपरिच्छेदात्मकखधर्माविभागेन चास्त्येकखम् । तथा नित्यप्रवृत्तपरिच्छेद्यद्रव्यालम्बनाभावेनानालम्बस्य परिच्छेद्यपरद्रव्यविभागेन तत्प्रत्ययपरिच्छेदात्मकखधर्मास कः । अहं कर्ता । कं कर्मतापन्नम् । अप्पगं सहजपरमाहादैकलक्षगनिजात्मानम् । किंविशिष्टम् । सुद्धं रागादिसमस्तविभावरहितम् । पुनरपि किंविशिष्टम् । धुवं टोत्कीर्णज्ञायकैकस्वभावत्वेन ध्रुवमविनश्वरम् । पुनरपि कथंभूतम् । एवं णाणप्पाणं दंसणभूदं एवं बहुविधपूर्वोक्तप्रकरणाखण्डेकज्ञानदर्शनात्मकम् । पुनश्च किंरूपम् । अइंदियं अतीन्द्रियं मूर्तविनश्वरानेकेन्द्रियरहितत्वेनामूर्ताविनश्वरैकातीन्द्रियस्वभावम् । पुनश्च है, [ज्ञानात्मानं] ज्ञानस्वरूप है, [दर्शनभूतं] दर्शनमयी है, [अतीन्द्रियमहार्थ] अपने अतींद्रिय स्वभावसे सबका ज्ञाता महान् पदार्थ है, [अचलं] अपने स्वरूपमें निश्चल है, [अनालम्बं] परद्रव्यके आलंबन (सहायता) से रहित स्वाधीन है। इस प्रकार शुद्ध टंकोत्कीर्ण आत्माको अविनाशी वस्तु मानता हूँ। भावार्थ-आत्मा किसी कारणसे उत्पन्न नहीं हुआ है, इसलिये अनादि, अनंत, शुद्ध, स्वतःसिद्ध, अविनाशी है, और दूसरी कोई भी वस्तु ध्रुव नहीं है। यह आत्मा अपने स्वभावकर एकस्वरूप है, इस कारण शुद्ध है। यह अपने ज्ञानदर्शन-गुणमयी है, इसके परद्रव्यसे जुदापना है, अपने धर्मसे जुदा नहीं है, इस कारण एक है। निश्चयसे एक स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, शब्दरूप विषयोंकी ग्रहण करनेवाली जो पाँच इन्द्रियाँ हैं, उनको त्यागकर अपने अखंड ज्ञानसे एक ही समय इन पाँच विषयोंका ज्ञाता यह आत्मा महा पदार्थ है, इसलिये इस आत्माका पाँच विषयरूप परद्रव्यसे जुदापना है, परंतु इनके जाननेरूप स्वभावसे जुदापना नहीं है, इसलिये भी यह एकरूप है। इसी प्रकार यह आत्मा समय समय विनाशीक ज्ञेयपदार्थोंके ग्रहण करनेवाला और त्यागनेवाला नहीं है, अचल है, इस कारण इसके ज्ञेयपर्यायरूप परद्रव्यसे जुदापना है, 'उसके जाननेरूप भावसे जुदापना नहीं है, इसलिये भी एक है, और अन्य भाव सहित ज्ञेयपदार्थोके अवलंबनका अभाव है, यह आत्मा तो स्वाधीन है, इस कारण इसके ज्ञेयपदार्थोंसे भिन्नपना है, परंतु इनके जाननेरूप भावसे जुदापना नहीं है, इससे भी एकरूप है। इस प्रकार अनेक परद्रव्योंके भेदसे अपनी एकताको नहीं छोड़ता है, इस कारण शुद्धनयसे शुद्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003289
Book TitlePravachanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1964
Total Pages612
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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