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________________ १८६ कुन्दकुन्दविरचितः [अ० २, गा० ५२माणा कालस्य संभवति, यतः प्रदेशाभावे वृत्तिमदभावः । स तु शून्य एव, अस्तिखसंज्ञाया वृत्तेरर्थान्तरभूतखात् । न च वृत्तिरेव केवला कालो भवितुमर्हति, वृत्तेहिं वृत्तिमन्तमन्तरेणानुपपत्तेः । उपपत्तौ वा कथमुत्पादव्ययध्रौव्यैक्यात्मकखम् । अनाद्यन्तनिरन्तरानेकांशवशीकृतैकात्मकत्वेन पूर्वपूर्वाशपध्वंसादुत्तरोत्तरांशोत्पादादेकात्मध्रौव्यादिति चेत् । नैवम् । यस्मिन्नंशे प्रध्वंसो यस्मिंश्चोत्पादस्तयोः सह प्रवृत्त्यभावात् कुतस्त्यमैक्यम् । तथा मध्वस्तांशस्य सर्वथास्तमितखादुत्पद्यमानांशस्य वा संभवितात्मलाभवात्मध्वंसोत्पादैक्यवर्तिध्रौव्यमेव कुतस्त्यम् । एवं सति नश्यति त्रैलक्षण्यं, उल्लसति क्षणभङ्गः, अस्तमुपैति नित्यं द्रव्यं, उदीयन्ते क्षणक्षयिणो भावाः। ततस्तत्वविप्लवभयात्कश्चिदवश्यमाश्रयो भूतो वृत्तवृत्तिमाननुसतव्यः। स तु प्रदेश एवाप्रदेशस्यान्वयव्यतिरेकानुविधायिखासिद्धेः। एवंसप्रदेशत्वे हि कालस्य कुत एकद्रव्यनिवन्धनं लोकाकाशतुल्याज्ञातुं शक्यते । मुण्णं जाण तमत्थं यस्यैकोऽपि प्रदेशो नास्ति तमर्थ पदार्थ शून्यं जानीहि हे शिष्य, कस्माच्छून्यमिति चेत् । अत्यंतरभूदं एकप्रदेशाभावे सत्यर्थान्तरभूतं भिन्नं भवति यतः कारणत् । कस्याः सकाशाद्भिन्नम् । अत्थीदो उत्पादव्ययध्रौव्यात्मकसत्ताया इति । तथाहि- कालपदार्थस्य तावत्पूर्वसूत्रोदितप्रकारेणोत्पादव्ययध्रौव्यात्मकमस्तित्वं विद्यते तच्चास्तित्वं प्रदेशं विना न घटते । यश्च प्रदेशवान् स कालपदार्थ इति । अथ मतं कालद्रव्याभावोऽप्युत्पादव्ययध्रौव्यत्वं घटते । नैवम् । अङ्गलिद्रव्याभावे वर्तमानवक्रपर्यायोत्पादो भूतर्जुपर्यायस्य विनाशस्तदुभयाधारभूतं ध्रौव्यम् । कस्य भविष्यति । न कस्यापि । तथा कालद्रव्याभावे वर्तमानसमयरूपोत्पादो भूतसमयरूपो विनाशस्तदुभयाधारभूतं ध्रौव्यम् । कस्य भविष्यति । हैं," तो ऐसा माननेसे तीनों भाव एक समयमें सिद्ध नहीं हो सकते, क्योंकि जिस अंशका नाश है, उसका नाश ही है, और जिसका उत्पाद है वह, उत्पादरूप ही है। उत्पाद व्यय एकमें किस तरह होसकते हैं, और ध्रौव्य भी कहाँ रह सकता है, और ऐसा माननेपर इन भावोंके नाश होनेका प्रसंग आता है, तथा बौद्धधर्मका प्रवेश होता है। ऐसा होनेसे नित्यपनेका अभाव हो जायगा, और द्रव्य क्षणविनाशी होने लगेगा, इत्यादि अनेक दोष आ जायेंगे । इस कारण समयपर्यायका आधारभूत प्रदेशमात्र कालद्रव्य अवश्य स्वीकार करना चाहिये । प्रदेशमात्र द्रव्यमें एक ही समय अच्छी तरह उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य सध जाते हैं। जो कोई ऐसा कहे "कि कालद्रव्यके जब प्रदेशकी स्थापना की, तो असंख्यात कालाणुओंको भिन्न माननेकी क्या आवश्यकता है ? एक अखंड लोकपरिमाण द्रव्य मानलेना चाहिये । उसीसे समय उत्पन्न होसकता है", तो उसका समाधान यह है, कि जो अखंड कालद्रव्य होवे, तो समयपर्याय उत्पन्न नहीं हो सकता, क्योंकि पुद्गलपरमाणु जब एक कालाणुको छोड़कर दूसरे कालाणुप्रति मंदगतिसे जाता है, तब उस जगह दोनों कालाणु जुदा जुदा होनेसे समयका भेद होता है । जो एक अखंड लोकपरिमाण कालद्रव्य होवे, तो समयपर्यायकी सिद्धि किस तरह हो सकती है ? यदि कहो, "कि कालद्रव्य लोकपरिमाण असंख्यातप्रदेशी है, उसके एकप्रदेशसे दूसरे प्रदेश प्रति जब पुद्गलपरमाणु जायगा, तब समयपर्यायको सिद्धि हो जायगी," तो उसका उत्तर यह है, कि ऐसा कहनेसे बड़ा भारी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003289
Book TitlePravachanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1964
Total Pages612
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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