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________________ १४ ] प्रवचनसारः प्रविभक्तप्रदेशत्वं पृथक्त्वमिति शासनं हि वीरस्य । अन्यत्वमतद्भावो न तद्भवत् भवति कथमेकम् ॥ १४ ॥ प्रविभक्तमदेशत्वं हि पृथक्त्वस्य लक्षणम् । तत्तु सत्ताद्रव्ययोर्न संभाव्यते, गुणगुणिनोः प्रविभक्तमदेशत्वाभावात् शुक्लोत्तरीयवत् । तथाहि —यथा य एव शुक्लस्य गुणस्य प्रदेशास्त एवोत्तरीयस्य गुणिन इति तयोर्न प्रदेशविभागः, तथा य एव सत्ताया गुणस्य प्रदेशास्त एव द्रव्यस्य गुणिन इति तयोर्न प्रदेशविभागः । एवमपि तयोरन्यत्वमस्ति तल्लक्षणसद्भावात् । अतद्भावो ह्यन्यत्वस्य लक्षणं तत्तु सत्ताद्रव्ययोविंद्यत एव गुणगुणिनोस्तद्भावस्याभावात् शुक्लोत्तरीयवदेव । तथाहि - यथा यः किलैकचक्षुरिन्द्रियविषयमापद्यमानः समस्तेतरेन्द्रियग्रामगोचरमतिक्रान्तः शुक्लो गुणो भवति, न खलु तदखिलेन्द्रियग्रामगोचरीभूतमुत्तरीयं भवति, यच्च किलाखिलेन्द्रियग्रामगोचरीभूतमुत्तरीयं भवति, न खलु स एकचक्षुरिन्द्रियत्रिषयमापद्यमानः समस्तेतरेन्द्रियग्रामगोचरमतिक्रान्तः शुक्लो गुणो भवतीति तयोस्तद्भावस्याभावः । तथा या दण्डदण्डिवत् । इत्थंभूतं पृथक्त्वं शुद्धात्मद्रव्यशुद्धसत्तागुणयोर्न घटते, कस्माद्धेतोर्भिन्नप्रदेशाभावात् । कयोरिव । शुक्रवत्रशुक्रगुणयोरिव इदि सासणं हि वीरस्स इति शासनमुपदेश आज्ञेति । कस्य । वीरस्य वीराभिधानान्तिमतीर्थकरपरमदेवस्य । अण्णत्तं तथापि प्रदेशाभेदेऽपि मुक्तात्मद्रव्यशुद्धसत्तागुणयोरन्यत्वं भिन्नत्वं भवति । कथंभूतम् । अतब्भावो अतद्भावरूपं संज्ञालक्षणप्रयोजनादिभेदस्वभावम् । यथा प्रदेशरूपेणाभेदस्तथा संज्ञादिलक्षणरूपेणाप्यभेदो भवतु को दोष इति चेत् । नैवम् । ण तब्भवं होदि तन्मुक्तात्मद्रव्यं [ प्रविभक्तप्रदेशत्वं ] जिसमें द्रव्यके प्रदेश अत्यन्त भिन्न हों, वह [ पृथक्त्वं ] पृथक्त्व नामका भेद है । और [ अतद्भावः ] प्रदेशभेदके विना संज्ञा, संख्या, लक्षणादिसे जो गुण-गुणी-भेद है, सो [ अन्यत्वं ] अन्यत्व है । परंतु सत्ता और द्रव्य [ तद्भवं ] उसी भाव अर्थात् एक हीं स्वरूप [ न भवति ] नहीं है, फिर [ कथं एकं ] दोनों एक कैसे हो सकते हैं ? नहीं हो सकते। भावार्थजिस प्रकार दंड और दंडीमें प्रदेश-भेद है, उस प्रकारके प्रदेश -भेदको पृथक्त्व कहते हैं । यह 'पृथक्त्व' सत्तामें नहीं हैं, क्योंकि सत्ता और द्रव्यमें प्रदेश -भेद नहीं है । जैसे वस्त्र और उसके शुक्ल गुणमें प्रदेश-भेद नहीं है, अभेद है । उसी प्रकार सत्ता और द्रव्यमें अभेद है, परंतु संज्ञा, संख्या, लक्षणादिके भेदसे जो द्रव्यका स्वरूप है, वह सत्ताका स्वरूप नहीं है, और जो सत्ताका स्वरूप है, वह द्रव्यका स्वरूप नहीं है । इस प्रकारके गुण-गुणी भेदको अन्यत्व कहते हैं । यह अन्यत्व भेद सत्ता और द्रव्यमें रहता है । यहाँ प्रश्न होता है कि, जैसे सत्ता और द्रव्यसे प्रदेश-भेद नहीं है, वैसे ही सत्ता- द्रव्यमें स्वरूप भेद भी नहीं है, फिर अन्यत्व-भेदके कहनेकी क्या आवश्यकता है ? सो इसका समाधान यह है, कि 'सत्ता और द्रव्यमें स्वरूप भेद नहीं है, एक ही भाव है', ऐसा कहना बन नहीं सकता, क्योंकि सत्ता और द्रव्यमें संज्ञा, संख्या, लक्षणादिसे स्वरूप-भेद अवश्य ही है, फिर दोनों एक कैसे हो सकते हैं ? अन्यत्व-भेद मानना ही पड़ेगा । जैसे वस्त्र और शुक्ल गुणमें अन्यत्व-भेद है, उसी Jain Education International For Private & Personal Use Only १३३ www.jainelibrary.org
SR No.003289
Book TitlePravachanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1964
Total Pages612
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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