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________________ १२४ कुन्दकुन्दविरचितः [अ० २, गा० ८यावेव सर्गसंहारौ सैव स्थितिः, यैव स्थितिस्तावेव सर्गसंहाराविति । तथाहि-य एव कुम्भस्य सर्गः स एव मृत्पिण्डस्य संहारः, भावस्य भावान्तराभावस्वभावेनावभासनात् । य एव च मृत्पिण्डस्य संहारः, स एव कुम्भस्य सर्गः, अभावस्य भावान्तरभावस्वभावेनावभासनात् । यौ च कुम्भपिण्डयोः सर्गसंहारौ सैव मृत्तिकायाः स्थितिः, व्यतिरेकमुखेनैवान्वयस्य प्रकाशनात् । यैव च मृत्तिकायाः स्थितिस्तावेव कुम्भपिण्डयोः सर्गसंहारौ, व्यतिरेकाणामन्वयानतिक्रमणात् । यदि पुनर्नेदमेवमिष्येत तदान्यः सर्गोऽन्यः संहारः अन्या स्थितिरित्यायाति । तथा सति हि केवलं सर्ग मृगयमाणस्य कुम्भस्योत्पादनकारणाभावादभवनिरेव भवेत् , असदुत्पाद एव वा । तत्र कुम्भस्याभवनौ सर्वेषामेव भावानामभवनिरेव भवेत् । असदुत्पादे वा व्योमप्रसवादीनादर्शयति–ण भवो भंगविहीणो निर्दोषपरमात्मरुचिरूपसम्यक्त्वपर्यायस्य भव उत्पादः तद्विपरीतमिथ्यात्वपर्यायस्य भङ्गं विना न भवति । कस्मात् । उपादानकारणाभावात् , मृत्पिण्डभङ्गाभावे घटोत्पाद इव । द्वितीयं च कारणं मिथ्यात्वपर्यायभङ्गस्य सम्यक्त्वपर्यायरूपेण प्रतिभासनात् । तदपि कस्मात् । “भावान्तरस्वभावरूपो भवत्यभावः" इति वचनात् । घटोत्पादरूपेण मृत्पिण्डभङ्ग इव । यदि पुनर्मिथ्यात्वपर्यायभङ्गस्य सम्यक्त्वोपादानकारणभूतस्याभावेऽपि शुद्धात्मानुभूतिरुचिरूपसम्यक्त्वस्योत्पादो भवति, तर्युपादानकारणरहितानां खपुष्पादीनामप्युत्पादो भवतु । न च तथा । भंगो वा पत्थि संभवविहीणो परद्रव्योपादेयरूपमिथ्यात्वस्य भङ्गो नास्ति । कथंभूतः । पूर्वोक्तसम्यक्त्वपर्यायसंभवरहितः । कस्मादिति चेत् । भङ्गकारणाभावात् घटोत्पादाभावे मृत्पिण्डस्येव । द्वितीयं च कारणं सम्यक्त्वपर्यायोत्पादस्य मिथ्यात्वपर्यायादोनों [विना ध्रौव्येण अर्थेण] नित्य स्थिररूप पदार्थक विना [न] नहीं होते। भावार्थउत्पाद व्ययके विना नहीं होता, व्यय उत्पादके विना नहीं होता, उत्पाद और व्यय ये दोनों ध्रौव्यके विना नहीं होते, तथा ध्रौव्य उत्पाद व्ययके विना नहीं होता । इस कारण जो उत्पाद है, वही व्यय है, जो व्यय है, वही उत्पाद है, जो उत्पाद व्यय है, वही ध्रुवता है। इस कथनको दृष्टान्तसे दिखाते हैंजैसे जो घड़ेका उत्पाद है, वही मिट्टीके पिंडका व्यय (नाश) है, क्योंकि एक पर्यायका उत्पाद (उत्पन्न होना) दूसरे पर्यायके नाशसे होता है । जो घड़े और पिंडका उत्पाद और व्यय है वही मिट्टीकी ध्रुवता है, क्योंकि पर्यायके विना द्रव्यकी स्थिति देखनेमें नहीं आती । जो माटीकी ध्रुवता है, वही घड़े और पिंडका उत्पाद-व्यय है, क्योंकि द्रव्यकी थिरताके विना पर्याय हो नहीं सकते । इस कारण ये तीनों एक हैं । ऐसा न मानें, तो वस्तुका स्वभाव तीन लक्षणवाला सिद्ध नहीं हो सकता । जो केवल उत्पाद ही माना जाय, तो दो दोष लगते हैं-एक तो कार्यकी उत्पत्ति न होवे, दूसरे असत्का उत्पाद हो जाय । यही दिखाते हैं-~-घड़ेका जो उत्पाद है वह मृत्पिण्डके व्ययसे है, यदि केवल उत्पाद ही माना जावे, व्यय न मानें, तो उत्पादके कारणके अभावसे घड़ेकी उत्पत्ति ही न हो सके, और जिस तरह घट-कार्य नहीं हो सकता, वैसे सब पदार्थ भी उत्पन्न नहीं हो सकते । यह पहला दूषण है । दूसरा दोष दिखाते हैं-जो ध्रुवपना सहित वस्तुके विना उत्पाद हो सके, तो असत् वस्तुका उत्पाद हो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003289
Book TitlePravachanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1964
Total Pages612
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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