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________________ १२० कुन्दकुन्दविरचितः [अ० २, गा० ६न खलु द्रव्यैव्यान्तराणामारम्भः, सर्वद्रव्याणां स्वभावसिद्धत्वात् । स्वभावसिद्धत्वं तु तेषामनादिनिधनखात् । अनादिनिधनं हि न साधनान्तरमपेक्षते । गुणपर्यायात्मानमात्मनः स्वभावमेव मूलसाधनमुपादाय स्वयमेव सिद्धसिद्धिमद्भूतं वर्तते । यत्तु द्रव्यैरारभ्यते न तव्यान्तरं कादाचित्कखात् स पर्याय द्वयणुकादिवन्मनुष्यादिवञ्च । द्रव्यं पुनरनवधि त्रिसमयावस्थायि न तथा स्यात् । अथैवं यथा सिद्धं स्वभावत एव द्रव्यं तथा सदित्यपि तत्स्वभावत एव सिद्धमित्यवधार्यताम् । सत्तात्मना (त्मनः) स्वभावेन निष्पन्ननिष्पत्तिमद्भावयुक्तखात् । न च द्रव्यादर्थान्तरभूता सत्तोपपत्तिमभिप्रपद्यते, यतस्तत्समवायात्तत्सदिति स्यात् । सतः सत्तायाश्च न तावद्युतसिद्धखे. नार्थान्तरख, तयोर्दण्डदण्डिवद्युतसिद्धवस्यादर्शनात् । अयुतसिद्धवेनापि न तदुपपद्यते । इहेदमितिप्रतीतेरुपपद्यत इति चेत् किंनिवन्धना हीहेदमिति प्रतीतिः। भेदनिबन्धनेति चेत् को नाम भेदः। प्रादेशिकः, अताद्राविको वा । न तावत्प्रादेशिकः, पूर्वमेव युतसिद्धलस्यापसारणात् । अताद्भाविकश्चेत् उपपन्न एव यद्रव्यं तम गुण इति वचनात् । अयं तु न खरवेकान्तेनेहेदमितिसुधारसपरमसमरसीभावपरिणतसर्वशुद्धात्मप्रदेशभरितावस्थेन शुद्धोपादानभूतेन स्वकीयस्वभावेन निष्पन्नत्वात्। यञ्च स्वभावसिद्धं न भवति तद् द्रव्यमपि न भवति । द्वयणुकादिपुद्गलस्कन्धपर्यायवत् मनुष्यादिजीवपर्यायवछ । सदिति यथा स्वभावतः सिद्धं तद्रव्यं तथा सदिति सत्तालक्षणमपि स्वभावत एवं भवति, न च भिन्नसत्तासमवायात् । अथवा यथा द्रव्यं स्वभावतः सिद्धं तथा तस्य योऽसौ सत्तागुणः सोऽपि स्वभावसिद्ध एव । कस्मादिति चेत् । सत्ताद्रव्ययोः संज्ञालक्षणप्रयोजनादिभेदेऽपि दण्डदण्डिवद्भिन्नप्रदेशाभावात् । इदं के [समाख्यातवन्तः। भले प्रकार कहते हैं। [यः] जो पुरुष आगमतः1 शास्त्रसे [तथा सिद्धं ] उक्त प्रकार सिद्ध [न इच्छति] नहीं मानता है, [हि] निश्चयकरके [सः] वह [परसमयः] मिथ्यादृष्टि है । भावार्थ-द्रव्य अनादिनिधन है, वह किसीका कारण पाके उत्पन्न नहीं हुआ है, इस कारण स्वयंसिद्ध है। अपने गुण पर्याय स्वरूपको मूलसाधन अंगीकार करके आप ही सिद्ध है। और जो द्रव्योंसे उत्पन्न होते हैं, वे कोई अन्य द्रव्य नहीं, पर्याय होते हैं; परंतु पर्याय स्थायी नहीं होतेनाशवान होते हैं। जैसे परमाणुओंसे द्वचणुकादि स्कंध तथा जीव पुद्गलसे मनुष्यादि होते हैं । ये सब द्रव्यके पर्याय हैं, कोई नवीन द्रव्य नहीं हैं। इससे सिद्ध हुआ, कि द्रव्य त्रिकालिक स्वयंसिद्ध है, वही सत्ता स्वरूप है । जैसे द्रव्य स्वभावसिद्ध है, वैसे ही सत्ता स्वभावसिद्ध है । परंतु सत्ता द्रव्यसे कोई जुदी वस्तु नहीं है, सत्ता गुण है, और द्रव्य गुणी है । इस सत्ता गुणके संबंधसे द्रव्य 'सत्' कहा जाता है। सत्ता और द्रव्यमें यद्यपि गुणगुणीके भेदसे भेद है, तो भी जैसे दंड और दंडीपुरुषमें भेद है, वैसा भेद नहीं है। भेद दो प्रकारका है-एक प्रदेशभेद और दूसरा गुणगुणीभेद । इनमें से सत्ता और द्रव्यमें प्रदेश मेद तो है नहीं, जैसे कि दंड और दंडीमें होता है, क्योंकि सत्ताके और द्रव्यके जुदा जुदा प्रदेश नहीं हैं, गुणगुणीभेद है; क्योंकि जो द्रव्य है, सो गुण नहीं है, और जो गुण है, सो द्रव्य नहीं है। इस प्रकार संज्ञा संख्या लक्षणादिसे भेद कहते हैं । द्रव्य-सत्तामें सर्वथा भेद नहीं हैं । कथंचित्रकार भेद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003289
Book TitlePravachanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1964
Total Pages612
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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