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________________ ४८ ] ५५ तुल्यकालमेव प्रकाशेत । सर्वतो विशुद्धस्य प्रतिनियतदेशविशुद्धेरन्तः प्लवनात् समन्ततोऽपि प्रकाशेत । सर्वावरणक्षयादेशावरणक्षयोपशमस्यानवस्थानात्सर्वमपि प्रकाशेत । सर्वप्रकारज्ञानावरणीयक्षयादसर्वप्रकारज्ञानावरणीय क्षयोपशमस्य विलयनाद्विचित्रमपि प्रकाशेत । असमानजातीयज्ञानावरणक्षयात्समानजातीयज्ञानावरणीयक्षयोपशमस्य विनाशनाद्विषममपि प्रकाशेत । अलमथवातिविस्तरेण, अनिवारितप्रसरप्रकाशशालितया क्षायिकज्ञानमवश्यमेव सर्वदा सर्वत्र सर्वथा सर्वमेव जानीयात् ॥ ४७ ॥ अथ सर्वमजानमेकमपि न जानातीति निश्चनोति प्रवचनसारः Jain Education International जो विजादि जुगवं अत्थे तिक्कालिगे तिहुवणत्थे । णा तस्स ण सक्कं सपज्जयं दव्वमेगं वा ॥ ४८ ॥ - पदम् । किं विशिष्टम् । तकालियमिदरं तात्कालिकं वर्तमानमितरं चातीतानागतम् । कथं जानाति। जुगवं युगपदेकसमये समंतदो समन्ततः सर्वात्मप्रदेशैः सर्वप्रकारेण वा । कतिसंख्योपेतम् । स स्तम् । पुनरपि किंविशिष्टम् । विचित्तं नानाभेदभिन्नम् । पुनरपि किंरूपम् । विसमं मूर्तमूर्तचेतनाचेतना - दिजात्यन्तरविशेषैर्विसदृशं तं णाणं खाइयं भणियं यदेवं गुणविशिष्टं ज्ञानं तत्क्षायिकं भणितम् । अभेदनयेन तदेव सर्वज्ञस्वरूपं तदेवोपादेयभूतानन्तसुखाद्यनन्तगुणानामाधारभूतं सर्वप्रकारोपादेयरूपेण भावनीयम् । इति तात्पर्यम् ॥ ४७ ॥ अथ यः सर्वं न जानाति स एकमपि न जानातीति विचारयति - जो ण विजादि यः कर्ता नैव जानाति । कथम् । जुगवं युगपदेकक्षणे । कान् । अत्थे अर्थान् । कथंभूतान् । तिक्कालिगे त्रिकालपर्यायपरिणतान् । पुनरपि कथंभूतान् । तिहुवणत्थे त्रिभुवनस्थान् । णादुं तस्स ण सक्कं तस्य एक अतीन्द्रिय क्षायिककेवलज्ञान ही समर्थ है, अन्य किसी ज्ञानकी शक्ति नहीं है । ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशमसे जो ज्ञान एक ही बार सब पदार्थोंको नहीं जानता, क्रम लिये जानता है, ऐसे क्षायोपशमिकज्ञानका भी केवलज्ञानमें अभाव है, क्योंकि केवलज्ञान एक ही बार सबको जानता है, और क्षायोपशमिकज्ञान एकदेश निर्मल है, इसलिये सर्वांग वस्तुको नहीं जानता, क्षायिकज्ञान सर्वदेश विशुद्ध है, इसीमें एकदेश निर्मलज्ञान भी समा जाता है इसलिये वस्तुको सर्वांगसे प्रकाशित करता है, और इस केवलज्ञानके सब आवरणका नाश है, मतिज्ञानावरणादि क्षयोपशमका भी अभाव है, इस कारण सब वस्तुको प्रकाशित करता है । इस केवलज्ञानमें मतिज्ञानावरणादि पाँचों कर्मोंका क्षय हुआ है, इससे नाना प्रकार वस्तुको प्रकाशता है, और असमान जातीय केवलज्ञानावरणका क्षय तथा समान जातीय मतिज्ञानावरणादि चारके क्षयोपशमका क्षय है, इसलिये विषमको प्रकाशित करता है । क्षायिकज्ञानकी महिमा कहाँतक कही जावे, अति विस्तारसे भी पूर्णता नहीं हो सकती, यह अपने अखंडित प्रकाशकी सुन्दरतासे सब कालमें, सब जगह, सब प्रकार, सबको, अवश्य ही जानता है || ४७ ॥ आगे जो सबको नहीं जानता, वह एकको भी नहीं जानता, इस विचारको निश्चित करते हैं [ यः ] जो पुरुष [ त्रिभुवनस्थान् ] तीन लोकमें स्थित [ त्रैकालिकान् ] अतीत, अना For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003289
Book TitlePravachanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1964
Total Pages612
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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