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________________ ४२ कुन्दकुन्दविरचितः [अ० १, गा० ३५सत्युभयोरचेतनत्वमचेतनयोः संयोगेऽपि न परिच्छित्तिनिष्पत्तिः । पृथक्त्ववर्तिनोरपि परिच्छेदाभ्युपगमे परपरिच्छेदेन परस्य परिच्छित्तिभूतिप्रभृतीनां च परिच्छित्तिप्रसूतिरनकुशा स्यात् । किंच-स्वतोव्यतिरिक्तसमस्तपरिच्छेद्याकारपरिणतं ज्ञानं स्वयं परिणममानस्य कार्यभूतसमस्तज्ञेयाकारकारणीभूताः सर्वेऽर्था ज्ञानवर्तिन एव कथंचिद्भवन्ति, किं ज्ञातृज्ञानविभागक्लेशकल्पनया ॥३५॥ अथ किं ज्ञानं किं ज्ञेयमिति व्यनक्तिकरणं तु देवदत्तस्य छेदनक्रियाविषये शक्तिविशेषस्तच्चाभिन्नमेव भवति । उपाध्यायप्रकाशादिबहिरङ्गोपकरणं तद्भिन्नमपि भवतु दोषो नास्ति । यदि च भिन्नज्ञानेन ज्ञानी भवति तर्हि परकीयज्ञानेन सर्वेऽपि कुम्भस्तम्भादिजडपदार्था ज्ञानिनो भवन्तु न च तथा । णाणं परिणमदि सयं यत एव भिन्नज्ञानेन ज्ञानी न भवति तत एव घटोत्पत्तौ मृत्पिण्ड इव स्वयमेवोपादानरूपेणात्मा ज्ञानं परिणमति । अट्ठा णाणठिया सव्वे व्यवहारेण ज्ञेयपदार्था आदर्श बिम्बमिव परिच्छित्त्याकारेण ज्ञाने तिष्ठन्तीत्यभिप्रायः ॥ ३५ ॥ अथात्मा [ज्ञानं] ज्ञान [स्वयं] आप ही [परिणमते] परिणमन करता है, [सर्वे अर्थाः] और सब ज्ञेय पदार्थ [ज्ञानस्थिताः] ज्ञानमें स्थित हैं । भावार्थ-यद्यपि व्यवहारमें संज्ञा, संख्या, लक्षण, प्रयोजनादि भेदोंसे ज्ञान और आत्माको वस्तुके समझनेके लिये भिन्न कहते हैं, परन्तु निश्चयमें ज्ञान और आत्मामें भिन्नपना नहीं है, प्रदेशोंसे ज्ञान और आत्मा एक है । इसी कारण ज्ञानभावरूप परिणमता आत्मा ही ज्ञान है । जैसे अग्नि ज्वलनक्रिया करनेका कर्ता है, और उष्णगुण ज्वलन क्रियाका कारण है। अग्नि और उष्णपना व्यवहारसे भिन्न हैं, परन्तु यथार्थमें भिन्न नहीं है, जो अग्नि है, वही उष्णपना है, और इसलिये अग्निको उष्ण भी कहते हैं । इसी प्रकार यह आत्मा जाननेरूप क्रियाका कर्ता है, और ज्ञान जानन–क्रियाका साधन है, इसमें व्यवहारसे भिन्नपना (भेद) है, वस्तुतः आत्मा और ज्ञान एक ही है । और जैसे कोई पुरुष लोहेके दाँते (हँसिये) से घासका काटनेवाला कहलाता है, उस तरह आत्मा ज्ञानसे जाननेवाला नहीं कहा जाता, क्योंकि घासका काटनेवाला पुरुष और घास काटनेमें कारण लोहेका दाँता ये दोनों जैसे जुदा जुदा पदार्थ हैं, उसी प्रकार आत्मा और ज्ञानमें जुदापना नहीं है, क्योंकि आत्मा और ज्ञान, अग्नि और उष्णताकी तरह अभिन्न ही देखनेमें आते हैं, जुदे नहीं दीखते, और जो कोई अन्यवादी मिथ्यादृष्टि कहते हैं कि, आत्मासे ज्ञान भिन्न है, ज्ञानके संयोगसे आत्मा ज्ञायक है । सो उन्हें “आत्मा अचेतन है, ज्ञानके संयोगसे चेतन हो जाता है," ऐसा मानना पड़ेगा। जिससे धूलि, भस्म, घट, पटादि समस्त अचेतन पदार्थ चेतन हो जायेंगे, क्योंकि जब ये पदार्थ जाने जाते हैं, तब इन धूलि वगैरः पदार्थोंसे भी ज्ञानका संयोग होता है । इस कारण इस दोषके मेंटनेके लिये आत्मा और ज्ञान एक ही मानना चाहिये । और जैसे आरसीमें घटपटादि पदार्थ प्रतिबिम्बरूपसे रहते हैं, उसी प्रकार ज्ञानमें सब ज्ञेयपदार्थ आ रहते हैं। इससे यह सारांश निकला, कि आत्मा और ज्ञान अभिन्न हैं, अन्यवादियोंकी तरह भिन्न नहीं हैं ॥ ३५ ॥ आगे "ज्ञान क्या है, और ज्ञेय क्या है," Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003289
Book TitlePravachanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1964
Total Pages612
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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