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________________ कुन्दकुन्दविरचितः [अ० १, गा० ३२गेण्हदि णेव ण मुंचदि ण परं परिणमदि केवली भगवं । पेच्छदि समंतदो सो जाणदि सव्वं णिरवसेसं ॥३२॥ गृह्णाति नैव न मुञ्चति न परं परिणमति केवली भगवान् । पश्यति समन्ततः स जानाति सर्व निरवशेषम् ॥ ३२॥ अयं खल्वात्मा स्वभावत एव परद्रव्यग्रहणमोक्षणपरिणमनाभावात्स्वतत्त्वभूतकेवलज्ञानस्वरूपेण विपरिणम्य निष्कम्पोन्मजज्ज्योतिर्जात्यमणिकल्पो भूत्वाऽवतिष्ठमानः समन्ततः स्फुरितदर्शनज्ञानशक्तिः, समस्तमेव निःशेषतयात्मानमात्मनात्मनि संचेतयते । अथवा युगपदेव सर्वार्थसार्थसाक्षात्करणेन ज्ञप्तिपरिवर्तनाभावात् संभावितग्रहणमोक्षलक्षणक्रियाविरामः प्रथममेव समस्तपरिच्छेद्याकारपरिणतत्वात् पुनः परमाकारान्तरमपरिणममानः समन्तोऽपि विश्वमशेषं पश्यति जानाति च विविक्तत्व एव ॥ ३२॥ .. कारणेन ज्ञेयपदार्थैः सह भिन्नत्वमेवेति प्रतिपादयति-गेण्हदि णेव ण मुंचदि गृहणाति नैव मुञ्चति नैव ण परं परिणमदि परं परद्रव्यं ज्ञेयपदार्थ नैव परिणमति । स कः कर्ता । केवली भगवं केवली भगवान् सर्वज्ञः । ततो ज्ञायते परद्रव्येण सह भिन्नत्वमेव । तर्हि किं परद्रव्यं न जानाति । पेच्छदि समंतदोसो जाणदि सव्वं णिरवसेसं तथापि व्यवहारनयेन पश्यति समन्ततः सर्वद्रव्यक्षेत्रकालभावैर्जानाति च सर्वं निरवशेषम् । अथवा द्वितीयव्याख्यानम्-अभ्यन्तरे कामक्रोधादि बहिर्विषये पञ्चेन्द्रियविषयादिकं वहिर्द्रव्य नं गृहणाति, स्वकीयानन्तज्ञानादिचतुष्टयं च न मुञ्चति यतस्ततः कारणादयं जीवः केवलज्ञानोत्पत्तिक्षण एव युगपत्सर्वं जानन्सन् परं विकल्पान्तरं न परिणमति । तथाभूतः सन् किं करोति । स्वतत्त्वभूतकेवलज्ञानज्योतिषा जात्यमणिकल्पो निःकम्पचैतन्यप्रकाशो भूत्वा स्वात्मानं स्वात्मना स्वात्मनि जानात्यनुभवति । तेनापि कारणेन परमपदार्थके ग्रहण तया त्यागरूप परिणामके अभावसे सब पदार्थोंको देखने जाननेपर भी अत्यंत पृथक्पना है, ऐसा दिखाते हैं-[केवली भगवान् ] केवलज्ञानी सर्वज्ञदेव [परं] ज्ञेयभूत परपदार्थोंको [नैव] निश्चयसे न तो [गृणाति] ग्रहण करते हैं, [न मुञ्चति] न छोड़ते हैं, और [न परिणमति] न परिणमन करते हैं, [सः] वे केवली भगवान् [सर्व] सब [निरवशेषं] कुछ भी बाकी नहीं, ऐसे ज्ञेय पदार्थीको [समन्ततः] सर्वांग ही [पश्यति] देखते हैं, और [जानाति] जानते हैं । भावार्थ-जब यह आत्मा केवलज्ञानस्वरूप परिणभन करता है, तब इसके निष्कंप ज्ञानरूपी ज्योति प्रगट होती है, जो कि उज्जवल रत्नके अडोल प्रकाशके समान स्थिर रहती है। वह केवलज्ञानी पर ज्ञेय प्रदार्थोको न ग्रहण करता है, न छोड़ता है, और न उनके रूप परिणमन करता है। अपने स्वरूपमें आप अपनेको ही वेदता है (अनुभव करता है), परद्रव्योंसे स्वभावसे ही उदासीन है। जैसे दर्पणकी इच्छाके विना ही दर्पगमें धट पट वगैरः पदार्थ प्रतिबिम्बित होते हैं, उसी प्रकार जाननेकी इच्छा विना ही केवलज्ञानीके ज्ञानमें त्रिकालवर्ती समस्त पधार्थ पतिबिम्बित होते हैं। इस कारण व्यवहारसे ज्ञाता द्रष्टा है। इससे यह सिद्ध हुआ, कि यह ज्ञाता आत्मा परद्रव्योंसे अत्यन्त (बिलकुल) जुदा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003289
Book TitlePravachanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1964
Total Pages612
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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