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________________ कुन्दकुन्दविरचितः - [अ० १, गा० ३०अथैवं ज्ञानमर्थेषु वर्तत इति संभावयति रयणमिह इंदणीलं दुद्धज्झसियं जहा सभासाए । अभिभूय तं पि दुद्धं वदि तह णाणमत्थेसु ॥ ३०॥ रत्नमिहेन्द्रनीलं दुग्धाध्युषितं यथा स्वभासा। अभिभूय तदपि दुग्धं वर्तते तथा ज्ञानमर्थेषु ॥ ३०॥ यथा किलेन्द्रनीलरत्नं दुग्धमधिवसत्स्वप्रभाभारेण तदभिभूय वर्तमानं दृष्टं, तथा संवेदनमप्यात्मनोऽभिन्नत्वात् कत्रशेनात्मतामापन्नं करणांशेन ज्ञानतामापन्नेन कारणभूतानामर्थानां कार्यभूतान् समस्तज्ञेयाकारानभिव्याप्य वर्तमान कार्यकारणत्वेनोपचर्य ज्ञानमर्थानभिभूय वर्तत इत्युच्यमानं न विप्रतिषिध्यते ॥ ३०॥ प्रवेश इव व्यवहारेण ज्ञेयपदार्थेषु प्रवेशोऽपि घटत इति ॥ २९ ॥ अथ तमेवार्थं दृष्टान्तद्वारेण दृढयतिरयणमिह रत्नमिह जगति । किं नाम । इंदणीलं इन्द्रनीलसंज्ञम् । किंविशिष्टम् । दुद्धज्झसियं दुग्धे निक्षिप्तं जहा यथा सभासाए स्वकीयप्रभया अभिभूय तिरस्कृत्य । किम् । तं पि दुद्धं तत्पूर्वोक्तं दुग्घमपि वदि वर्तते । इति दृष्टान्तो गतः । तह णाणमढेसु तथा ज्ञानमर्थेषु वर्तत इति। तद्यथा-यथेन्द्रनीलरत्नं कर्तृ स्वकीयनीलप्रभया करणभूतया दुग्धं नीलं कृत्वा वर्तते, तथा निश्चयरत्नत्रयात्मकपरमसामायिकसंयमेन यदुत्पन्नं केवलज्ञानं तत् स्वपरपरिच्छित्तिसामर्थेन समस्ताज्ञानान्धका तिरस्कृत्य युगपदेव सर्वपदार्थेषु परिच्छित्याकारेण वर्तते। अयमत्र भावार्थः-कारणभूतानां सर्वपदार्थानां कार्यभूतापरिच्छित्याकारा उपचारेणार्था भण्यन्ते, तेषु च ज्ञानं वर्तत इति भण्यमानेऽपि व्यवहारेण दोषो नास्तीति ॥ ३० ॥ अथ पूर्वसूत्रेण भणितं भी कहा जाता है ।। २९ ॥ आगे व्यवहारसे आत्मा ज्ञेयपदार्थों में प्रवेश करता है, यह बात दृष्टान्तसे फिर पुष्ट करते हैं - [इह] इस लोकमें [यथा] जैसे [दुग्धाध्युषितं] दूधमें डुबाया हुआ [इंद्रनीलं रत्नं] प्रधान नीलमणि [स्वभासा] अपनी दीप्तिसे [तत् दुग्धं] उस दूधको [अपि] भी [अभिभूय] दूर करके अर्थात् अपनासा नीलवर्ण करके [वर्तते] वर्तता है। [तथा] उसी प्रकार [अर्थेषु] ज्ञेयपदार्थोमें [ज्ञानं] केवलज्ञान प्रवर्तता है । भावार्थ-यदि दूधसे भरे हुए किसी एक वर्तनमें प्रधान नीला रत्न डाल दें, तो उस वर्तनका सब दूध नीलवर्ण दिखलाई देगा। क्योंकि उस नीलमणिमें ऐसी एक शक्ति है, कि जिसकी प्रभासे वह सारे दूधको नीला कर देता है । इस क्रियामें यद्यपि निश्चयसे नीलमणि आपमें ही है, परन्तु प्रकाशकी विचित्रताके कारण व्यवहारनयसे उसको सब दूधमें व्याप्त कहते हैं । ठीक ऐसी ही ज्ञान और ज्ञेयों (पदार्थों) की दशा (हालत) है, अर्थात् निश्चयनयसे ज्ञान आत्मामें ही है, परन्तु व्यवहारनयसे ज्ञेयमें भी कहते हैं। जैसे दर्पणमें घटपटादि पदार्थ प्रतिबिम्बित होते हैं, और दर्पण अपनी स्वच्छतारूप शक्तिसे उन पदार्थोके आकार होजाता है, उसी प्रकार ज्ञानमें पदार्थ झलकते हैं, और अपनी स्वच्छतारूप ज्ञायकशक्तिसे वह ज्ञेयाकार होजाता है, अतएव व्यवहारसे ज्ञान पदार्थोंमें है, ऐसा कहते हैं ॥ ३० ॥ आगे जैसे ज्ञेयमें ज्ञान है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003289
Book TitlePravachanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1964
Total Pages612
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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