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________________ २८ कुन्दकुन्दविरचितः तया समस्त संवेदनालम्बनभूताः सर्वद्रव्यपर्यायाः प्रत्यक्षा भवन्ति ॥ २१ ॥ अथास्य भगवतोऽतीन्द्रियज्ञानपरिणतत्वादेव न किंचित्परोक्षं भवतीत्यभिमैतिणत्थि परोक्खं किंचि वि समंत सव्वक्वगुणसमिद्धस्स । अक्खातीदस्स सदा सयमेव हि णाणजादस्स ॥ २२ ॥ नास्ति परोक्षं किंचिदपि समन्ततः सर्वाक्षगुणसमृद्धस्य । अक्षातीतस्य सदा स्वयमेव हि ज्ञानजातस्य ॥ २२ ॥ [अ० १, गा० २१ - अस्य खलु भगवतः समस्तावरणक्षक्षण एवं सांसारिकपरिच्छित्तिनिष्पत्तिबलाधानहेतुभूतानि प्रतिनियत विषयग्राहीण्यक्षीणि तैरतीतस्य, स्पर्शरसगन्धवर्णशब्दपरिच्छेदरूपैः समरसतया समन्ततः सर्वैरेवेन्द्रियगुणैः समृद्धस्य, स्वयमेत्र सामस्त्येन स्वपरप्रकाशनस्य, स्वैरं लोकोत्तरज्ञानसमस्तद्रव्यक्षेत्रकालभावतया सर्वद्रव्यगुणपर्याया अस्यात्मनः प्रत्यक्षा भवन्तीत्यभिप्रायः ॥ २१ ॥ अथ सर्वं प्रत्यक्षं भवतीत्यन्वयरूपेग पूर्वसूत्रे भणितमिदानीं तु परोक्षं किमपि नास्तीति तमेवार्थं व्यतिरेकेण दृढयति— णत्थि परोक्खं किंचि वि अस्य भगवतः परोक्षं किमपि नास्ति । किंविशिष्टस्य । समंत सव्त्रक्खगुणसमिद्धस्स समन्ततः सर्वात्मप्रदेशैः सामस्त्येन वा स्पर्शरसगन्धवर्णशब्दपरिच्छित्तिरूपसर्वेन्द्रियगुणसमृद्धस्य, तर्हि किमक्षसहितस्य । नैवम् । अक्खातीदस्स अक्षातीतस्येन्द्रियव्यापाररहितस्य, अथवा द्वितीयव्याख्यानम् —– अक्ष्णोति ज्ञानेन व्याप्नोतीत्यक्ष आत्मा तद्गुणसमृद्धस्य । सदा सर्वदा सर्वकालम् । पुनरपि किंरूपस्य । सयमेव हि णाणजादस्स स्वयमेव हि स्फुटं केवलज्ञानरूपेण जातस्य परिणतस्येति । तद्यथा—अतीन्द्रियस्वभावपरमात्मनो विपरीतानि क्रमप्रवृत्तिहेतुभूतानीन्द्रियाण्यतिक्रान्तस्य जगत्त्रयकालत्रयरण, अपने आप ही प्रगट हुआ केवलज्ञान है, इस कारण एक ही समयमें सब द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव ज्ञानरूपी भूमिमें प्रत्यक्ष झलकते हैं ॥ २१ ॥ आगे इस भगवानके अतीन्द्रियज्ञानरूप परिणमन करनेसे कोई भी वस्तु परोक्ष नहीं है, यह कहते हैं - [ अस्य भगवतः ] इस केवली भगवानके [ किंचिदपि ] कुछ भी पदार्थ [परोक्षं नास्ति ] परोक्ष नहीं है । एक ही समय सब द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावको प्रत्यक्ष जानता है, इसलिये परोक्ष नहीं । कैसे हैं ? वे भगवान् [ अक्षातीतस्य ] इन्द्रियोंसे रहित ज्ञानवाले हैं, अर्थात् इन्द्रियें संसारसंबंधी ज्ञानका कारण हैं । और परोक्षरूप मर्यादा लिये पदार्थोंको जानती हैं, इस प्रकारकी भावइंद्रियें भगवानके अब नहीं, इसलिये सत् प्रत्यक्ष स्वरूप जानते हैं । फिर कैसे हैं ? [ समन्ततः ] सब आत्मा के प्रदेशों (अंगों) में [ सर्वाक्षगुणसमृद्धस्य ] सब: इंद्रियोंके गुण जो स्पर्श वगैरः को ज्ञान उस कर पूर्ण है, अर्थात् जो एक एक इन्द्रिय एक एक गुणको ही जानती हैं, जैसे आँख रूपको, इस तरह के क्षयोपशमजन्यज्ञानके अभाव होनेपर प्रगट हुए केवलज्ञानसे वे केवली भगवान्, सब अंगों द्वारा सब स्पर्शादि विषयोंको जानते हैं । फिर कैसे हैं ? [ स्वयमेव ] अपने आप ही [हि ] निश्चय कर [ज्ञानजातस्य ] केवलज्ञानको प्राप्त हुए हैं । भावार्थ -- अपने और परवस्तुके प्रकाशनेवाला नाशरहित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003289
Book TitlePravachanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1964
Total Pages612
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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