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श्रीमद् राजचन्द्र गया था। इस कारण मुझे जैन लोगोंसे घृणा रहा करती थी। कोई पदार्थ बिना बनाए नहीं बन सकता, इस लिए जैन मुर्ख हैं। उन्हें कुछ भी खबर नहीं उस समय प्रतिमा पूजनके अश्रद्धाल लोगोंकी क्रिया भी मुझे पसन्द नहीं थी । मेरो जन्म-भूमिमें जितने वणिक् लोग रहते थे, उन सबको कुलश्रद्धा यद्यपि भिन्न भिन्न थी फिर भी थोड़ी बहुत प्रतिमा पूजनके अश्रद्धालुओंके समान थी। लोग मुझे प्रथमसे ही शक्तिशाली और गांवका नामांकित विद्यार्थी मानते थे, इससे मैं कभी कभी जन-मंडलमें बैठकर अपनी चपल शक्ति बतानेका प्रयत्न किया करता था।
वे लोग कंठी बांधने के कारण बार बार मेरी हास्यपूर्बक टीका करते, तो भी मैं उनसे वाद विवाद करता और उन्हें समझाने का प्रयत्न करता था ।
धीरे धीरे मुझे जैनोंका प्रतिक्रमण सूत्र इत्यादि ग्रन्थ पढ़ने को मिले । उनमें बहुत विनय पूर्वक जगतके समस्त जीवोंसे मैत्री भाव प्रकट किया है । इससे मेरी उस ओर प्रीति हुई और प्रथममें भी रही। परिचय बढ़ता गया। स्वच्छ रहनेके और दूसरे आचार विचार मझे बैष्णवोंके ही प्रिय थे, जगत्कर्ताको भी श्रद्धा थी । इतने में कंठी टूट गई और इसे दुबारा मैने नहीं बांधी । उस समय बांधने न बाँधनका कोई कारण मैंने नहीं ढूंढा था । यह मेरी तेरह वर्षकी वय-चर्या है । इसके बाद मैं अपने पिताकी दुकानपर बैठने लगा था, अपने अक्षरोंकी छटाके कारण कच्छ दरबारके महलमें लिखनेके लिये जब जब बुलाया जाता था तब तब वहाँ जाता था । दुकानपर रहते हुए मैंने अनेक प्रकारका आनन्द किया है, अनेक पुस्तकें पढ़ी हैं, राम आदि के चरित्रोंपर कविताएँ लिखीं हैं, सांसारिक तृष्णाएं की है, तो भी मैंने किसीको कम, अधिक भाव नहीं कहा, अथवा किसीको कम ज्यादा तौलकर नहीं दिया, यह मुझे बरावर याद है ।"
इस परसे स्पष्ट ज्ञात होता है कि वे एक अति संस्कारी आत्मा थे । बड़े बड़े विद्वान् भी जिस आत्मा की ओर ध्यान नहीं देते उसी आत्माकी ओर श्रीमद्जीका बाल्य कालसे अद्भत तीव्र लक्ष्य था । ____ आत्माके अमरत्व तथा क्षणिकत्वके विचार भी कुछ कम न किए थे । कुल श्रद्धासे जैन धर्मको अंगीकार नहीं किया था, लेकिन अपने अनुभवके बलपर उसे सत्य सिद्ध करके अपनाया था । सत्य धर्मके अबाधित सत्य सिद्धान्तोंको श्रीमद्जीने अपने जीवन में उतारा था, और मुमुक्षुओंको भी तदनुरूप बननेका उपदेश देते थे । वर्तमान युगमें ऐसे महात्माका आविर्भाव समाजके लिये सौभाग्यको बात है । ये मतमतान्तरोंमें मध्यस्थ थे ।
इनको जातिस्मरण ज्ञान था । अर्थात् पूर्वभवोंको जानते थे । इस सम्बन्धमें मुमुक्षु भाई पदमशी भाईने एकबार उनसे पूछा था, और उसका स्पष्टीकरण स्वयं उन्होंने अपने मुखसे किया था । पाठकोंकी जानकारीके लिये उसे यहाँ दे देना योग्य समझता हूँ। पदमशी भाई ने पूछा- “आपको जातिस्मरण कब और कैसे हुआ?" श्रीमद्जीने उत्तर दिया- "जब मेरी उम्र सात वर्षकी थी, उस समय ववाणियामें अमीचन्द्र नामके एक सद्-गृहस्थ रहते थे । वे पूरे लम्बे चौडे, सुन्दर और गुणवान् थे । उनका मेरे ऊपर खूब प्रेम था । एक दिन सर्पके काट खानेसे उनका तुरन्त देहान्त हो गया । आस-पासके मनुष्योंके मुखसे इस बातको सुनकर मैं अपने दादाके पास दौड़ा आया । मरण क्या चीज है, इस बातको मैं नहीं जानता था। इस लिए मैंने दादासे कहा, दादा, अमीचन्द्र मर गए क्या? मेरे दादाने उस समय विचारा कि यह बालक है, मरण की बात करनेसे डर जायगा, इस लिए उन्होंने, जा भोजन कर ले, यों कहकर मेरी बातको टालनेका प्रयत्न किया । 'मरण शब्द' उस छोटे
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