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________________ पुण्यप्रकारानुं स्तवन । स्वामि संघ खमाविए सा०, जे उपनी अप्रीत तो। सज्जन कुटुंब करि खामणां सा०, ए जिनशासनरीत तो ॥५॥ खमिए ने खमाविए सा०, एह ज धर्मनो सार तो । शिवगतिआराधन तणो सा०, ए त्रीजो अधिकार तो ॥६॥ मृषावाद हिंसा चोरी सा०, धनमूर्छा मैथुन तो। क्रोध मान माया तृष्णा सा०, प्रेम द्वेष पैशुन्य तो ॥७॥ निंदा कलह न कीजिए सा०, कूडां न दीजे आळ तो। रति अरति मिथ्या तजो सा०, माया मोह जंजाळ तो ॥८॥ त्रिविध त्रिविध वोसराविए सा०, पापस्थान अढार तो । शिवगतिआराधन तणो सा०, ए चोथो अधिकार तो ॥९॥ ढाल ५ मी (हवे निसुणो इहां आवीया. ए देशी) जनम जरा मरणे करी ए, आ संसार असार तो। कर्या कर्म सहु अनुभवे ए, कोइ न राखणहार तो ॥१॥ शरण एक अरिहंतन ए, शरण सिद्ध भगवंत तो । शरण धर्म श्री जैननो ए, साधु शरण गुणवंत तो ॥२॥ अवर मोह सवि परिहरी ए, चार शरण चित्त धार तो। शिवगति आराधन तणो ए, ए पांचमो अधिकार तो ॥३॥ आ भव परभव जे कयों ए, पाप कर्म केइ लाख तो । आतमसाखे ते निदिए ए, पडिकमिए गुरुसाख तो ॥४॥ मिथ्यामति वाविया ए, जे भाख्यां उत्सूत्र तो।। कुमति कदाग्रहने वशे ए, जे उत्थाप्यां सूत्र तो ॥५॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003287
Book TitleNavsmaranadisangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVicharshreeji, Damayantishreeji
PublisherNagindas Kevalshi Shah Ahmedabad
Publication Year1964
Total Pages258
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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