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प्राकृत-सूक्तरत्नमाला।
जीव-दयाए रहिओ जीवो अन्नं करेइ जो धम्म।। आरुहइ छिन्न-कन्न सो खरमेरावणं मुत्तुं ॥ १४६ ॥ जीवदयया रहितो जीवोऽन्यं करोति यो धर्मम् । आरोहति च्छिन्नकर्ण स खरमैरावणं मुक्त्वा ॥ १४६ ॥
He, who devoid of compassion for animals, practises another virtue, is like one who rejects Airavata ( Indra's elephant) and mounts an earless ass ( lit: having its ears torn ).
हंतूण पर-प्पाणे अप्पाणं जो करइ स-प्पाणं। अप्पाणं दिवसाणं करण णासेइ अप्पाणं ॥१४७॥ हत्या पर-प्राणानात्मानं यः करोति सप्राणम् । अल्पानां दिवसानां कृते नाशयत्यात्मानम् ॥ १४७ ॥
He, who adds to his vitality ( lit : makes himself full of life ) by killing others ( lit: destroying the life of others) destroys his soul ( lit : himself ) for the sake of ( living ) a few days more.
मुक्खत्थीहिं करेअव्वो धम्मो जीव-दयामओ। जाइ जीवो अहिंसंतो जओ अमरणं पयं ॥ १४८ ॥ मोक्षार्थिभिः कर्तव्यो धर्मो जीवदयामयः। याति जीवोऽहिंसन् यतोऽमरणं पदम् ॥ १४८ ॥
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