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________________ 75 युवि अणालत्तण अलवित्तए वा तेसि असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा दाउ "वा अणुप्पदाउ वा णण्णस्थ रायभिओगेणं, गणाभिओगेणं, बलाभियोगेणं, देवया"भिमोगणं, गुरुनिग्गहेणं, वित्तिकतारेणं कप्पइ मे समणे निग्गंथे फासुएण एसणिज्जएणं असणं, पाण, खाइम, साइमेणं वत्थापडिग्गह कंबलं पायमुच्छणे णं पाडिहारिय पीढ फलग सेज्जा संथाएण मोसह भेसज्जेण य पडिलामे माणस्स विहरित्तए ति कट्ट इम एयाणुरूवं अभिग्गह अभिगिण्हइ" (उपा० अ० 1) अर्थ-हे भगवन ! मुझे न कल्पे, क्या न कल्पे ? सो कहता हूं। आज से लेकर अन्य तीथियों, अन्य तीथियों के देवो की मूर्तियों अथवा अन्य तीर्थी (दूसरे मतावलंबियों) द्वारा ग्रहण किये हुए अरिहंतों के चैत्यों (श्री तीर्थकरदेवों की मूर्तियों) को वन्दन करना अथवा नमस्कार करना न कल्पे तथा प्रथम से किसी के बिना बुलाये बुलाना, बार-बार बुलाना, यह सब मुझे न कल्पे, और उन्हें अशन, पान, खादिम, स्वादिम यह चार प्रकार का आहार देना अथवा बार-बार देना न कल्पे ! परन्तु इतने कारणों को छोड़कर-1-राजा के आग्रह से 2-लोक-समुदाय (जनता) के आग्रह से, 3-बलवान के आग्रह से, 4-क्षुद्रदेवता के आग्रह से, 5-गुरु-माता-पिताकलाचार्य के, आग्रह से, 6-जिनमदिर को, जिनप्रतिमा को, गुरु को, दुष्ट लोगों द्वारा किये गये उपद्रव -से उनकी रक्षा के लिये (इन छह कारणों से) छिडी (आगारों) को छोड़कर पूर्वकथित को वन्दनादि करने में दोष न लगे, जो न कल्पे सो कहा ? | अब जो कल्पे सो कहते हैं- 1-मुझे कल्पे श्रमण-निग्रंथ (जैन साधु साध्वी) को प्रासुक (अचित) और एषणीय (दोषरहित) अशन, पान, खादिम स्वादिम (चार 'प्रकार का आहार) वस्त्र, पात्र, कम्बल, रजोहरण, चौकी, पट्टा आदि, बसती (रहने का स्थान) संथारा (तणादि) एवं औषध, भेषज आदि से प्रति लाभते (देते हुए जीवन यापन करना। ऐसी प्रतिज्ञा कर अभिग्रह ग्रहण किया। सारांश यह है कि अन्य मतावलम्बी द्वारा तीर्थ कर की प्रतिमा ग्रहण की हुई को वन्दना नमस्कार करने का आनन्द श्रावक ने त्याग किया है। तो यह फलितार्थ 'निकला कि इनके अतिरिक्त जो जिनप्रतिमाएं होंगी उनकी सदा वन्दन-मस्कार 'पूर्वक पूजा करूंगा। यदि जिनप्रतिमा को वन्दन-नमस्कार करना उसे अभिष्ट न होता तो वह ऐसा अभिग्रह (प्रतिज्ञा) करता कि"- ''मैं किसी भी जिनप्रतिमादि को नमस्कार नहीं करूंगा।" पर ऐसा नहीं कहा 4-अभ्बड़ श्रावक ने जिनप्रतिमा को भक्ति-पूजा की(अ) श्री उववाई सूत्र में वर्णन आता है कि अंबडस्स णं परिवायगस्स नो कप्पइ अण्णउत्थिए वा अण्ण उत्थिय देवयाणि वा अण्ण उत्थिय परिंगहियाई अरिहंतचेइयाई वा वंदित्तए वा नमंसित्तए वा णण्णत्थ अरिहंते वा अरिहंतचे इयाणि वा ॥" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003237
Book TitleJain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1984
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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