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________________ 64 "वन्नत्तं" अर्थात् ज्ञान पांच प्रकार का कहा है । यदि चैत्य शब्द का अर्थ ज्ञान होता तो कहीं भी ऐसा पाठ अवश्य होता कि - "चइयं पंचविहं पन्नत्त" । मइ चेइयं, सूयचेयं, ओहि चेइयं इत्यादि । सारे जिनागमों को ढूंढो तो भी कहीं ज्ञान के वर्णन में 'नाण' के बःले चेत्य शब्द का प्रयोग हुआ हो ऐसा कदापि नहीं मिल पावेगा । यदि हो तो बतलाइये ? पुनश्च ज्ञान एक है, एक वचन हैं । 'चेइयाई शब्द बहु वचन है । जिसका अर्थ है बहुत चैत्य । माना कि ज्ञान के भी भेद हैं पर वे सब अपूर्ण ज्ञान हैं । पूर्ण ज्ञान तो मात्र केवलज्ञान ही है और वह एक है । चैत्य भिन्न-भिन्न हैं । प्रतिमाएंमूर्तियां जुदा-जुदी हैं । यहाँ एक वचन कह रहा है कि ज्ञान एक है और बहु वचन कह रहा है कि अनेक हैं । जब अर्थों में मतभेद होता है तभी उसके वास्तविक अर्थों के निर्णय के लिये सत्य-ग्राही सत्यान्वेषक व्यक्ति को जिज्ञासा उत्पन्न होती है । उसी जिज्ञासा की सतुष्टी केलिये वहाँ हमने आज से पन्द्रह सौ वर्ष के पहले तक के गीतार्थ पूर्वाचार्यों द्वारा किये हुए चैत्य शब्द के अर्थों के प्रमाण दिये हैं और साथ ही उन अर्थों में फेरफार करने से हुई आगमों की उत्सूत्र प्ररूपणा का दिग्दर्शन कराया है भवभीरुओं, सत्यान्वेषियों, सत्य-ग्राहियों, एवं सम्यग्दृष्टियों को तो गीतार्थं पूर्वाचार्यों द्वारा किये गये अर्थों को हो स्वीकार करना चाहिये। ऐसा स्वीकार करने से ही तीर्थ कर भगवन्तों द्वारा किये गये अर्थों को ही मानना होगा। इसी से ही तीर्थ ंकर भगवन्तों द्वारा प्रतिपादित सत्य वस्तु का बोध होगा । इसी से ही जैन संस्कृति तथा सत्य इतिहास का परिचय मिलेगा । यही अर्थ कसौटी पर भी सच्चे उतरते हैं । यह बात ऊपर किये गये विवेचन से स्पष्ट हो जाती है। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि चारण मुनि नंदीश्वर द्वीप में 52 सिद्धायतनों (जिनमंदिरों) में विद्यमान चार-चार, श्री ऋषभ श्री चंद्रानन, श्री वारिषेण तथा श्री वर्धमान की शाश्वत ( अकृत्रिम ) प्रतिमाओं की वन्दना और नमस्कार के लिये ही जाते हैं किसी अन्य कार्य के लिये नहीं जाते । इसलिये सम्यग्दृष्टि के लिये फिर वह चाहे 1- अविरति इन्द्र, नरेन्द्र, सुरेन्द्रअसुरेन्द्र, देवी-देवता, स्त्री-पुरुष हों, 2- चाहे देशविरति श्रावक-श्राविकाएं हों, चाहे सर्वविरति साधु-साध्वी हों सबके लिये जिनप्रतिमा पूजनीय है । अतः भगवती सूत्र के उपर्युक्त पाठानुसार सही अर्थ न करके स्वकपोलकल्पित ( मनमाना ) अर्थ करके जिनशासन के विद्रोही न बनें । निह्नव न बनें आगमों में यह भी स्पष्ट उल्लेख पाये जाते हैं कि- तीर्थ करों के जन्म -आदि कल्याणकों, फाल्गुण, आषाढ़ तथा कार्तिक आदि अष्टान्हिकाओं में इन्द्रादि देवदेवियां, विद्याधर आदि नंदोश्चर द्वीप में जाकर वहाँ के सिद्धायतनों में विराजमान - अकृत्रिम जिनप्रतिमाओं की वन्दना नमस्कार, पूजा अर्चा, भक्ति आदि से अट्ठाई f - महोत्सव मनाने के लिये जाते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003237
Book TitleJain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1984
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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