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________________ अर्थात्-इस नाम वाली जगह का बागीचा या उद्यान का समावेश होता है जिसके अन्दर एक मंदिर होता है और साथ में कई एक कोठड़ियां भी होती है। जिन में साधुओं का निवास होता है। इसके उपरांत कभी एक स्तूप या समाधि स्तंभ भी होता है । उस समुच्चे स्थान को चैत्य के नाम से ठीक ही विभूषित किया जाता है । (प्रो० हानल)। यदि यह माना जावे कि नंदीश्वर द्वीप में जैन चारण मूनि यक्षों के मंदिरों को वन्दन करने जाते हैं तो ऐसा कभी संभव नहीं है, क्योंकि जैन मुनियों का ऐसा आचार ही नहीं हैं। मुनि तो क्या अविरति-सम्यग्दृष्टि, देशविरति गृहस्थ भी अथवा अविरति मभ्यग्दृष्टि देवी-देवता भी यक्षादि को वन्दना करने से मिथ्यात्व के भागी बनने के दोष से दूषित नहीं होना चाहते तो सभ्यग्दृष्टि महाव्रतधारी निग्रंथ अनगारी चारण मुनि ऐसी सिद्धान्त और आचार के विरुद्ध चेष्टा क्यों करेंगे ? कदापि नहीं करेंगे। 2-मुनि भीखम जी के तेरापंथ अनुयायी मुनि जीतमल जी (जयाचार्य) ने यहां पर चेइआई शब्द का अर्थ रूचक नंदीश्वरद्वीप में बहुत जिनेन्द्र अथवा बहुत जिन भी किया है । यथा बहु जिनेन्द्र वा जिन कहै, रूचक मंदीश्वर माय । भाव का तिमहिज सहू, देखी हिये हुलास ।।18।। धन्य जिनेन्द्र बन्य केवली, गिरिक टादिक नेह । जेह कहा तिमहिज ए, इम तसु स्तुति करहे।।191 (जयाचार्य कृत-प्रश्नोत्तर तत्त्वबोध-जंघाचारणाधिकार), अर्थात-यहां चेइयाणि का यह अर्थ है कि रुचक-नदीश्वरद्वीप में जंघाचारण, विद्याचारण मुनि साक्षात् बहुत भाव जिनेन्द्रों को अथवा बहुत जिनों को वंदन करने जाते हैं, जिन प्रतिमाओं को नहीं। यदि यहां पर चैत्य का अर्थ भाव-जितेन्द्र किया जावे तो जब आठवें द्वीप में मनुष्य ही नहीं है तो वहां तीर्थकर अथवा बहुत तीर्थ कर भी नहीं हो सकते। तथा एक काल में एक विजय अथवा एक क्षेत्र में एक तीर्थकर ही होता है अधिक नहीं । यदि ऐसा माना जावे कि रुचक नंदीश्वर द्वीप में मनुष्यलोक से गये हए तीर्थकर को वहां चारण मुनि वन्दन करने जाते है तो भी यह सिद्धान्त और आगम विरुद्ध है क्योंकि किसी भी जैनागम में ऐसा कोई उल्लेख नहीं है कि ढाईद्वीप - मनूष्यलोक से कदापि कोई जिनेन्द्र अथवा जिन भरतक्षेत्र, ऐरावतक्षेत्र अथवा महाविदेह क्षेत्र के अपने क्षेत्र को छोड़कर अन्य क्षेत्र में गया हो। यदि कोई ऐसा उल्लेख हो तो वतलायें। इसलिये चैत्य शब्द का अर्थ स्वयं जिनेन्द्रदेव भी नहीं है। अतः नंदीश्वर द्वीप में जाकर चारण मुनि वहां की शाश्वत जिनप्रतिमाओं की अवश्य चैत्यवन्दन करते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003237
Book TitleJain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1984
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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