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________________ 56 जब तीर्थंकर का जन्म होता है तब देवेन्द्र देवी-देवताओं सहित प्रभु का जन्म महोत्सव मनाने के लिए तुरन्त के जन्मे हुए बालक - तीर्थ कर को मेरु पर्वत के शिखर पर ले जाने के लिये पृथ्वीतल पर आता है । तब शन्द्र तीर्थ कर की माता के पास आकर बालक तीर्थंकर के शरीर के बराबर एक पुतले का निर्माण करता है और उसे माता की बगल में रखकर बालक प्रभु को अपने साथ ले जाता है । जन्माभिषेक के बाद बालक को माता के पास लाकर लिटा देता है और वहां से पूतले को वापिस ले जाता है । 2. केवलज्ञान के बाद समवसरण में अशोकवृक्ष के नीचे स्वर्ण सिहासन पर जब तीर्थंकर परमात्मा विराजमान होते हैं तब देवन्द्र अन्य तीन दिशाओं में तीर्थ कर के अनुरूप तीन प्रतिबिंबों को तीनों दिशाओं में स्थापन करता है । इस का उल्लेख हम पहले कर आये हैं । 3. जहां प्रभु विहार करते थे, आहार लेते थे, ध्यान करते थे, दीक्षा, केवलज्ञान, निर्वाण प्राप्त करते थे वहा वहां उनके अनुयायी भगत उनके चरण-बिम्ब (चरण पादुका चरण चिन्ह ) स्थापित करते थे । अथवा उनकी प्रतिमाओं का निर्माण कराकर वहां मंदिरों में स्थापित करते थे । 4. उनकी तपस्या के स्थानों पर चिताओं पर उनकी यादगार में स्तूपों का निर्माण करके बड़ी श्रद्धा और भक्ति से उनकी पूजा उपासना करते थे । यह बात आगमों के अभ्यासी से छिपी नहीं है । उदाहरण- 1दिदेव श्री ऋषभदेव ने दीक्षा लेकर 400 दिनों के निर्जल उपवास के बाद हस्तिनापुर में आकर अपने प्रपोत्र राजकुमार श्र ेयांसकुमार द्वारा वैसाख सुदि तुतीया को इक्षु रस से पारणा किया था, वहां उनकी स्मृति में श्रेयांसकुमार ने एक स्तूप का निर्माण करा कर वहां उनके पाषाण निर्मित चरण बिम्ब की स्थापना की थी । 5. तत्पश्चात् जब आप अपने द्वितीय पुत्र बाहुबली की राजधानी तक्षशिला में पधारे तब रात्री के समय जहां आप ध्यानरूढ़ रहे वहां बाहूबली ने उसकी स्मृति में आपके पाषाणमय चरणबिम्ब स्थापित किये और धर्मचक्र तीर्थ की स्थापना की । 6. जब प्रभु श्री का निर्वाण अष्टापद ( कैलाश) पर्वत पर हुआ तब आपके गणधरों के तथा अन्य मुनियों के चितास्थानों पर देवताओं ने तीन स्तूपों का निर्माण कर उनमें चरणबिम्बों को स्थापित किया । 7. उनके समीप आपके पुत्र भरत चक्रवर्ती ने श्री ऋषभदेव से वर्धमान तक चौबीस तीर्थ करों तथा श्री ऋषभदेव के निन्यानवें पुत्र श्रमणों की रत्नों की तथा उन्हें वन्दन नमस्कार करते हुए अपनी स्वयं की कुल एक सौ प्रतिमाएं बनवाकर सिंहनिषद्या नामक मंदिर में स्थापना की थी । 8. अंतिम तीर्थ कर वर्धमान महावीर के निर्वाण स्थान, दाह-संस्कार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003237
Book TitleJain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1984
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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