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________________ 54 संघों को भी एक कड़ी में पिरोकर रीढ़ की हड्डी के समान संगठित रखने में वर्णनातीत सहयोग दिया है और परिचय में अभिवृद्धि भी की है। मतों द्वारा म तिवाले का ज्ञान जब तीर्थ कर विद्यमान होते हैं तब भी उन का दर्शन करने वाले उन के भौतिक शरीर का ही दर्शन कर पाते हैं और वे मान लेते हैं कि हमने तीर्थ कर के दर्शन किये हैं। वास्तव में तो उनकी आत्मा में ही तीर्थ करत्व के गुण विद्यमान हैं। उनकी आत्मा तथा गुण दोनों ही अरूपी है। उनकी आत्मा के दर्शन तो चर्म चक्षुओं से हो ही नहीं सकते और न ही उनके आत्मिक गुणों के दर्शन संभव है। इनकी आत्मा ने जिस शरीर को धारण किया है उसी के दर्शन होते हैं। उनके शरीर का दर्शन करते हुए उसके अन्दर अरूपी आत्मा तथा उसके गुणों का विचार करते हैं । उनकी प्रशम-रस-निमग्न सौम्य आकृति का आधी-खुली नासाग्रदृष्टि से पद्मासन अथवा खड़ी जिनमुद्रा में विराजमान अष्ट-प्रतिहार्य सहित के दर्शन करके वीतराग सर्वज्ञभाव-जन्य गुणों को अनुमान द्वारा जान कर नतमस्तक होते है । मात्र इतना ही नहीं परन्तु समवसरण में पूर्व दिशोन्मुख साक्षात् तीर्थकर के विराजमान होने पर उनके शरीर रूप सजीव-प्रतिमा तथा उत्तर, पश्चिम, दक्षिण तीन दिशाओं में तदानुरूप विराजमान अष्ट-प्रातिहार्य सहित तीन निर्जीव प्रतिमाओं का जिन में तीर्थ कर की आत्मा का सद्भाव नहीं होने पर भी साक्षात् तीर्थंकर मान कर ही वहाँ आने वाले देव-दानव, नरेन्द्र देवेन्द्र मानव-तियं च बड़ी श्रद्धा और भक्ति से उनके दर्शन, वन्दन नमस्कार, सत्कार, पूजन, कीर्तन आदि करते हैं। आगम में कहा है कि मूल रूपं प्रभोः प्राच्या अन्यास्त्रिदिक्ष नाकिनः । तन्वन्ति भगवत्तुल्य प्रभोमहिम्नव तत् ध्रव ॥1॥ अर्थात--सम सरण में स्वयं प्रभु का रूप पूर्व दिशा की तरफ होता है। बाकी तीन दिशाओं में देवता प्रमु क समान आकृतियों की निश्चय ही स्थापना करते हैं। मल सजीव शरीर तथा तीन प्रतिमाओं (चारों) के मुख से उन की वाणी को सुनकर उनके केवलज्ञान-केवलदर्शन आदि गुणों को जान लेते थे । क्योंकि केवलज्ञानादि पांच ज्ञानों में से मात्र एक श्रु तज्ञान ही ऐसा है कि जिससे शब्दों द्वारा पांचों अरूपी ज्ञानों का परिचय प्राप्त होता है । बाकी के चार (मति, अवधि, मनापर्यव, केवल) ज्ञान तो स्वसंवेदक हैं। उन से मात्र उस ज्ञानवान व्यक्ति को ही अपने योग्य लाभ है दूसरों को नहीं । श्र तज्ञान ही शब्दों, ध्वनियों, इंगतों, लिपियों आदि द्वारा दूसरों को लाभ पहुंचा सकता है । वाणी, लिपि, ध्वनि आदि सब पौदगलिक जड़ हैं, म त हैं । वे भी शरीर द्वारा ही प्रगट होते हैं । अतः तीर्थ कर के शरीर तथा वाणी द्वारा हम भगवान के 6-देखें समवसरण का चित्र पृष्ठ एक पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003237
Book TitleJain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1984
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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