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________________ 45 विकृत होने लगे और एक नवीन मूर्तिपूजा जन्मी । ईसाई पादरियों ने घर-देवताओं की जगह सम्भाल ली। सेंट ज्योज ने मंगल का स्थान लिया। सेंट एलनो और “पोलकस मछुओं को सान्तवना देने वाले के पद पर कायम हुए। कुमारिको माता और सिसीलिया गौरी तथा सरस्वती के स्थान पर मानी गई। सुधारकों ने उपयुक्त अनेक बातों पर कई दफा जोरदार प्रहार किये। परिणाम क्षणिक विजय के सिवाय कुछ न हुआ। भले ही वे लोग मन्दिरों की मतियों को नष्ट-म्रष्ट करने में अपनी शक्ति का प्रदर्शन कर पाये हों पर मूर्तियों को मानव समाज के हृदय पर से उखाड़ फेंकने के लिए किसी के पास कोई शक्ति नहीं है। (लार्ड मेकोले के निबन्ध का अभिप्राय) __ 15-वेद धर्मानुयायियों को भी अदृश्य-अरूपी ईश्वरवाद के स्थान पर अवतारवाद की कल्पना करनी पड़ी। मात्र इतना ही नहीं परन्तु अनगिनत देवीदेवताओं यक्ष-यक्षनियों के साकार रूपों ने उनके दिलो-दिमाग पर अपना आधिपत्य जमा लिया। __ कहने का आशय यह है कि सभी अदृश्य-अरूपी ईश्वरवादियों के सामने उनके ईश्वर का न तो कोई स्वरूप है व रूप है और न ही कोई चारित्र है। इसलिये उन्हें भी अपनी उपासना और भक्ति के लिये किसी न किसी साकार की शरण लेनी पड़ी। 'परन्तु जो आकृतियां उन्होने स्वीकार की अथवा जिस जीवित साकार व्यक्ति अथवा व्यक्तियों को पूज्य मानकर उनका आलम्बन लिया ऐसे प्रतीकों में उन के माने हुए ईश्वर का अभाव ही रहा है। अतः ऐसी मूर्तियों, चित्रों “फोटो, स्मारकों, उपासनागहों, प्राकारों आदि में उनके माने हुए ईश्वरों अथवा उन के स्वरूप का आभाव ही है । ईश्वर अरूपी निराकार होने से वे सब आकार न तो ईश्वर के हैं और न ही निर्गुण ईश्वर की उन में स्थापना ही संभव है। ऐसे यक्षों"णियों के प्रतीकों द्वारा तकियों, पीरों, पैगम्बरों, गरुओं, ग्रन्थों, देवियों-देवताओं, आदि की उपासना ही संभव है परन्तु ईश्वर परमात्मा की नहीं। अतः ऐसी भक्ति उपासना से ईश्वर की भक्ति उपासना असंभव होने से ईश्वरत्व-मोक्ष की 'प्राप्ति भी असंभव है । अग्नि कुंडों में याग-यज्ञ आदि करने से अथवा सूर्य, नाग आदि की उपासना से भी आत्मकल्याण होना संभव नहीं । जिनके वे प्रतीक हैं वे और उनके द्वारा जिन की उपासना की जाती है, वे सब स्वयं कर्मबन्धनों से जकड़े हुए हैं । रागी द्वेषी, कामी, अल्पज्ञ, जन्म-जरा-मृत्यु के चक्र में उलझे हुए हैं। इच्छाएं, बाधाएं उन्हें घेरे हुए है। मोह माया के पाश में फंसे हुए हैं। उन की उपासना से वीतरागता सर्वज्ञता और मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती। ऐसे संसारियों की उपासना से संसार की वृद्धि ही संभव है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003237
Book TitleJain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1984
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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