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________________ 231 नोट-जिस समय अंग पूजा, अग्रपूजा से द्रव्य पूजा करते हों उसके बीच में भाव पूजा नहीं करनी चाहिए और जब भाव पूजा (चैत्यवन्दन स्तवन आदि) करते हों तब द्रव्य पूजा नहीं करनी चाहिए। इसी बात को लक्ष्य में रख कर तीन स्थानों में "निसीहि' बोली जाती है। . 4. जिनप्रतिमा से ईश्वरोपासना का उद्देश्य उपर्युक्त पूजा की विधि में ईश्वरोपासना द्वारा अनादि काल से संसार में भटकती हुई आत्मा को सर्व कर्मों से मुक्त कर उसके शुद्ध स्वरूप को प्रगट करना है जिस से शाश्वत सुख रूप मोक्ष की प्राप्ति हो सके और यह ईश्वर के चरित्र के अनुकरण से ही सम्भव है। मानव को चरित्र निर्माण, आत्मोत्थान केलिए एक ऐसे आदर्श की आवश्यकता है कि जिस आत्मा ने पतित अवस्था से उत्थान पाते पाते ऊँचे उठते-उठते क्रमशः उच्च, उच्चतर, उच्चत्तम अवस्था को प्राप्त किया हो । क्योंकि जब तक किसी भी चित्रकार के सामने किसी आदर्श चित्र की आकृति अथवा उस आकृति की कल्पना उस के मन में नहीं होगी तब तक वह चित्र का निर्माण नहीं कर पायेगा। यह बात निःसंदेह है। इसी प्रकार आत्मा को मोक्ष प्राप्त करने केलिए भी ऐसे आदर्श व्यक्ति के चारित्र के अनुकरण की आवश्यकता हैं कि जिसने अपने ही पुरुषार्थ बल से पतित अवस्था से उत्थान पाते-पाते आत्मा को शुद्धतम सीमा तक पहुंचाने में सफलता प्राप्त की हो। ऐसा चारित्र जैन तीर्थंकर के सिवाय अन्य किसी भी स्वरूपवाले ईश्वर का नहीं है। चारित्र शरीरधारी का ही होता है अशरीरी का नहीं। मानव शरीरधारी है इसलिए ऐसे उत्तम शरीरधारी मानव की भक्ति और उपासना के द्वारा ही उस आदर्श का अनुकरण करने की प्रेरणा पा सकता है। इसलिये वीतराग सर्वज्ञ तीर्थंकरदेव की प्रतिमा के आलम्बन के द्वारा ही अथवा साक्षात् तीर्थंकरदेव के द्वारा ही उनके चारित्न का साक्षात्कार करके उसे प्राप्त करने की जिज्ञासा सम्भव है । इसी उद्देश्य को लेकर श्री जिनप्रतिमा के आलम्बन से मुमक्ष आत्माओं को अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए सदा प्रयत्नशील रहना चाहिए । यही ईश्वरोपासना का उद्देश्य है। कोई भी तीर्थंकर की आत्मा एक दिन में, एक भव में तीर्थंकर पद प्राप्त नहीं कर पाती। उस आत्मा को इस अवस्था को प्राप्त करने के लिए अनेक जन्मो तक साधना करनी पड़ती हैं । इस साधना में अनेक प्रकार के उत्थान और पतन आते रहते हैं। इस बात की पुष्टि जैनगामों में अन्तिम तीर्थंकर श्रमण भगवान महावीर के 27 स्थूल भवों से बराबर होती है कि उन्होंने एक निम्न अवस्था से उत्थान पाते हुए उच्चतम अवस्था को कैसे प्राप्त किया। तीर्थंकरों का अन्तिम भव तो उच्चतम अवस्था को पूर्णतः प्राप्त कर आत्मा को सर्व कर्मों से मुक्त कराकर निर्वाण प्राप्त करने के लिये होता है। इसी प्रकार मुमुक्षु आत्मा को भी अपने साधना काल में अनेक प्रकार की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003237
Book TitleJain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1984
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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