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का शुद्ध अर्थ चिंतन तथा प्रभु के स्वरूप का आलम्बन करना।
9. मुद्रा (अंग विन्यास विशेष) विक-(1) योग मुद्रा-दोनों हाथों की दसों अंगुलियों को परस्पर आन्तरिक अर्थात् एक दूसरे के बीच में रखकर दोनों हाथों की कोहणी तक जोड़कर नाभि पर रखना (जैसे कमलनाल सहित कमल सरोवर में निकलते हैं) इस मुद्रा को योगमुद्रा कहते हैं। इसका उपयोग पंचांग प्रणाम व चैत्यवन्दन में स्तुति स्तोत्र स्तवन आदि का उच्चारण करते होता है। (2) मुक्ता-शुक्ति मुद्रा मोति के गर्भ वाली सीप के आकार की मुद्रा)-दोनों हाथों की अंगुलियां जोड़ कर हथेलियों को बीच में डोडे के आकार में मिलाकर माथे पर लगाना । (3) जिन मुद्रा-सीधे खड़े होकर दोनों पैरों के पंजों में चार अंगुल का तथा दोनों एड़ियों में चार अंगुल से कम अन्तर रखकर दोनों हाथ नीचे लटकाकर काउसग्ग करना।
10. तीन प्रणिधान-(एकाग्रता स्थापन) चैत्यवन्दन विधि में मन वचन काया को दूसरे विचारों में जाने से रोककर देव, गुरु आदि की भक्ति में स्थापित करना विशेष एकाग्र करना।
(1) चैत्यवन्दन प्रणिधान -जावन्ति चेइआई गाथा के द्वारा चैत्यों को वन्दन करने रूप प्रणिधान । (2) गुरुवन्दन प्रणिधान-जावंत केवि साहू गाथा द्वारा गुरुओं को वन्दना रूप प्रणिधान और (3) प्रार्थना प्रणिधान-जयवीय राय से अभावमखंडा तक सूत्र द्वारा-प्रार्थना प्रणिधान समझना।
आशातना 'असायणा अवन्ना अणायरो, भोग दुप्पणीहाणं अणुचियवित्ति सव्वा पयत्तेणं ।'
(चैत्यवन्दन महाभाष्ये) अर्थात्-आशातनाएँ पांच प्रकार की हैं-(1)अवज्ञा, (2) अनादर, (3) भोग, (4) दुःप्रणिधान और (5) अनुचित वृत्ति।
__श्री मंदिर जी में उपर्युक्त पांच प्रकार की आशातनाएं उपयोग (सावधानी) पूर्वक त्यागनी चाहिये । (गुरुमहाराज के पास तथा तीर्थादि में भी अवश्य त्याग करनी चाहियें)।
आशातना शब्द का अर्थ यह है कि-आ-यानि समस्त प्रकार से, शातना-यानि विनाश । अर्थात्---शुभ कार्य का, विनय गुण अथवा उचित व्यवहार का जिस कृत्य से विनाश हो उसे आशातना कहते हैं।
(1) अवज्ञा आशातना का स्वरूप (1) पाय पसारण, (2) पल्लत्थिबंधण, (3) बिंबपिट्ठिदाणं च । (4) उच्चासण सेवणया जिणपुरओ भण्णइ अवन्नं ।।
(1) श्री जिनमंदिर में अर्थात् जिनप्रतिमा के सामने पग लम्बे करके बैठना। (2) हाथ अथवा वस्त्र आदि से पलाठी बांधकर बैठना । (3) जिनप्रतिमा की तरफ पीठ करना । (4) प्रभु से ऊँचे आसन पर बैठना । इन से श्री जिनेश्वर प्रभु की अवज्ञा
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