________________
187
भोग आदि का मानना जैन सिद्धांत के एक दम प्रतिकूल है ।
अतः श्री जिनेन्द्र देव की नग्न, अनग्न, अलंकृत, सर्पफण मंडित, पद्मासनासीन, अर्द्धपद्मासनासीन' खड़ी ध्यानावस्था मुद्रावाली आदि सब प्रकार की प्रतिमाएँ चाहे मंदिरों में विराजमान हों चाहे रथ-पालकी में रथयात्रा के समय विराजमान हों सब पूजनीय हैं । यदि ऐसा न माना जाय तो रथ अथवा पालकी में बैठे हुए तीर्थंकर की मुद्रा को त्यागी, बैरागी, बीतराग - केवली अवस्था की मान्यता संगत नहीं होगी। क्योंकि चाहे नग्न हो चाहे चक्रवर्ती के वेश में हो जब वह रथ, पालकी, हाथी आदि पर बैठ जावेगा तब उसे कोई भी त्यागी, वैरागी अथवा योगी नहीं कहेगा । जैसे दिगम्बर नग्न साधु को रथ, पालकी, हाथी, घोडे, ऊँट आदि सवारी पर चढ़ाकर लिए फिरें तो उसे उस पंथ के अनुयायी भी मुनि नहीं मानेंगे और नहीं उसे त्यागी समझकर वन्दनादि करेंगे अतः सवारी पर बिठलाकर जिनप्रतिमा का जलूस निकालना छद्मास्थावस्था ( पिंडस्थ अवस्था ) की भक्ति का ही प्रतीक है । वह भी त्यागावस्था से पहले गृहस्थावस्था का । यह रथयात्रा दीक्षा (तन) कल्याणक को पूज्य मानने से ही संगत बैठती है । कल्याणक शब्द का अर्थ है जो भक्त जनों के कल्याण अर्थात् मोक्ष का हेतू हो । दीक्षा कल्याणक के वरघोड़े में प्रभु चक्रवर्ती के वेश में दीक्षा लेने के लिए पालकी आदि में बैठकर घर से निष्क्रमण करते हैं ।
3. श्वेतांवर - दिगम्बर दोनों आम्नयों के साहित्य में वर्णन है कि तीर्थंकर के सभी कल्याणक तथा तपादि के पारणे के अवसर पर पुष्पवृष्टि होती है । यदि इस में हिंसा थी तो इसका निषेध किसी भी तीर्थंकर ने तो किया होता ? परन्तु उनका निषेध न करना ही यह संकेत करता है कि पुष्पादि सचित द्रव्यों से जिनेन्द्रदेव की पूजा में हिंसा नहीं हैं । दिगम्बर तेरहपंथी प्रतिमापूजन में तो सचित फल, फूल, नैवेद्य ( पकवान ) आदि द्रव्यों को चढ़ाने का बोलते हैं पर उनके बदले में सूखे द्रव्य चढ़ा कर तीर्थंकर के मंदिर में मृषावाद (झूठ बोलने) के अपराध सेवन की जोखम मोल लेते हैं ।
4. उपर्युक्त सब विवेचन किसी व्यक्ति, पंथ अथवा संप्रदाय की आलोचना अथवा द्वेष की भावना से नहीं किया गया । मात्र सत्य वस्तु को समझने-समझाने की दृष्टि से किया है। ताकि श्री वीतराग सर्वज्ञ, तीर्थंकर भगवन्तों के शुद्ध, रागद्वेष रहित सिद्धांतों को समझकर हृदयांगम करके सत-पथ - गामी बनें । हठाग्रह, पक्षपात त्याग कर आगमानुकूल आचरण करें । अज्ञानता बेसमझी, भ्रांति तथा दृष्टिराग वश सत्यमार्ग का अपलाप तथा उपहास न करें सब जैन धर्मानुयायियों को वीतराग केवली भगवन्तों के सत्यमार्ग का अनुयायी बनने का सौभाग्य प्राप्त हो और जैनों के दोनों मूर्तिपूजक आम्नायों में विधि-विधानों को एक रूपता हो जाने से अलौकिक एकता स्थापित हो ।
5. मतभेद तो अज्ञान अथवा राग-द्वेष से या दोनों कारणों से सम्भव है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org