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________________ 176 (काशी), 7-श्रावस्ति, 8-क्षत्रियकुंड, 9-मिथिला, 10-राजगृही, 11-अपापा(पावापुरी) 12-भद्दिलपुर, 13-चम्पापुरी, 14-कोशाम्बी, 15-रत्नपुरी, 16-चन्द्रपुरी, 17-- सम्मेतशिखर और शजय इत्यादि । ये सब तीथं भूमियां श्री तीर्थंकर देवों के च्यवन, जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान तथा निर्वाण भूमियां होने के कारण जैनों के प्राचीन स्थावर तीर्थ हैं। जैनों के प्रथमांग श्री आचारांग सूत्र की चतुर्दशपूर्वधर आचार्य श्री भद्रबाहु कृत नियुक्ति की निम्नलिखित गाथाओं में प्राचीन तीर्थों के नाम मिलते हैं दसण-नाण-चरित्ते, तव-वेरग्गे य होइ उपसत्था । जाय जहा ताय तहा, लक्खणं वुच्छं सलक्खणं ओ॥329॥ तित्थगराण भगवओ, पवयण-पावयणि-अइसयड्ढीणं । अभिगमण-नमन-दरिसण-कित्तण संपूअणा थुणणा ॥33011 जम्माभिसेय-निक्खमण-चरण-नाणुप्पया च निग्वाणं । दियलोअ-भवण-मंदर-नंदीसर-भोमनगरेसु ॥331॥ अट्ठावयमुजिते, गयगपए य धम्मचक्के य। पास-रहावत्तनगं चमरुप्पायं च वंदामि ॥3320 अर्थात्-दर्शन (सम्यक्त्व), ज्ञान, चरित्र, तप, वैराग्य, विनय विषयक भाव-- नाएं जिन कारणों से शुद्ध बनती हैं, उनको मैं स्वलक्षणों सहित कहूँगा। 329 (1) तीर्थंकर भगवन्तों के, (2) इनके प्रवचनों के, (3) प्रवचन प्रभावक-प्रचारक आचार्यों के, (4) केवल, मनःपर्यव, अवधिज्ञानी, वैक्रिय आदि अतिशयी लब्धिधारी मुनियों के सन्मुख जाने, (5) उनको नमस्कार करने, (6) उनका दर्शन करने, (7) उनके गुणों का कीर्तन करने, (8) उनकी अन्नदान, वस्त्रादि से पूजा करने से दर्शन-ज्ञान-चारित्र-तप-वैराग्य संबंधी गुणों की शुद्धि तथा वृद्धि होती है । (यह जंगम तीर्थ की भक्ति हुई)। 330 (1) जन्म कल्याणक स्थान, (2) जन्माभिषेक स्थान, (3) दीक्षा स्थान, (4) श्रमण अवस्था की विहार भूमि, (5) केवलज्ञान उत्पत्ति का स्थान, (6) निर्वाण कल्याणक भूमि, (7)असुरादि भवनों में, मेरु पर्वत में, नन्दीश्वर द्वीप के शाश्वत जिन चैत्यों (तीर्थकरदेवों की मूर्तियों) को, (8) व्यंतर देवों के भूमिस्थ नगरों में रही हुई जिनेश्वर प्रभु की प्रतिमाओं को, (9) अष्टापद उज्जयंत (गिरनार), गजानपद, धर्मचक्र (तक्षशिला का श्री ऋषभदेव के चरण बिम्ब का तीर्थ), अहिछत्रा स्थित पार्चनाथ रथावर्त पर्वत, चमरोत्पात, इन नामों से प्रसिद्ध जैनतीथों में विद्यमान जिन प्रतिमाओं को वन्दन करता हूं। 331-332 सारांश यह है कि नियुक्तिकार श्रुतकेवली चौदहपूर्वधर श्री भद्रबाह स्वामी ने तीर्थंकर भगवन्तों के जन्म, दीक्षा, विहार, निर्वाण, केवलज्ञान उत्पत्तिस्थानों आदि को तीर्थ कहा है और वहाँ रही हुई जिनप्रतिमाओं को वन्दन किया है । मात्र इतना ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003237
Book TitleJain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1984
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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