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गये ? इस पर पक्षपात रहित होकर जरा विचार करें। श्री तत्त्वार्थ सूत्र में यथा'मूर्छा परिग्रहं '(तत्त्वार्थ' 7/12) तथा जैन आगमों में मूर्छा को परिग्रह कहा है और प्रमाद को हिंसा कहा है । अत: जिनप्रतिमा की पूजा करने में साधक को प्रमाद का अभाव है और तीर्थंकर को मुर्छा का अभाव है, इसलिये श्री जिनेश्वर प्रभु की पूजा भक्ति करने वाले साधक गृहस्थ तथा साधु को न तो हिंसा सम्भव है और न तीर्थंकर को परिग्रह अथवा भोग लिप्सा की सम्भवना ही । ऐसे वीतराग केवली तीर्थंकर की निर्वद्य पूजा भक्ति में हिंसा, भोग तथा परिग्रह को बतलाकर उसका निषेध सर्वथा अनुचित है । साधु तो छद्मस्थ है उसके त्याग की तुलना तीर्थंकर से नहीं की जा सकती। साधु के निमित्त होने वाली प्रत्यक्ष हिंसा को देखते
और करते हुए भी धर्म मानना यह आपके सिद्धान्त के ही विरुद्ध है । यदि पूजा में द्रव्यों के प्रयोग से हिंसा ही हिंसा समझोगे तो ऐसी पवित्र धर्मं करनी के त्याग से कोई भी धर्म कार्य सम्भव नहीं। श्वासोश्वास लेने से हिंसा, पलकें झपकने से हिंसा, हलन, चलन, उठने बैठने, चलने, फिरने, खाते, पीते, सोते जागते में हिंसा । किस में हिंसा नहीं? मुनि उपदेश के लिये आते जाते हैं, ग्रामानुग्राम विहार करते हैं, टट्टी पेशाब आदि जाते हैं, सब कार्यों में प्रत्यक्ष हिंसा होती है। तो फिर ऐसे कार्य तो आपको कदापि न करने चाहिये। साधु तो द्रव्य और भाव से हिंसा का त्यागी है। आपके माने हुए सिद्धान्त की हिंसा के स्वरूप को देखते हुए साधु के व्रतों का पालन ही असम्भव है। कोई साध धर्म का पालन कर ही नहीं सकता। तो कहना होगा कि आप के और आपके धर्म गुरुओं द्वारा माना हुआ हिंसा का स्वरूप जैनागमों की मान्यता के सर्वथा प्रतिकूल है यदि आपकी मान्यता ठीक है तो फिर कोई भी जैनधर्मानुयायी चाहे वह गृहस्थ हो, साधु साध्वी हो केवली हो अथवा तीर्थंकर हो, सब हिंसक ही सिद्ध होंगे । ऐसा होने से उनकी करनी और कथनी में एकदम अन्तर है। इसके लिये आप स्वयं ही निर्णय करें कि सत्य वस्तु क्या है ?
जिन पजा पर कंए का दृष्टान्त पूजा शब्द दयावाची है और जिनपूजा में अप्रमत्त भाव होने से निबन्ध दया रूप है। क्योंकि जिनराज की पूजा को श्रावकादि फूलों आदि से करते हैं वह अप्रमत्त भाव होने से स्वदया भी है और फूलों आदि द्रव्यों पर भी दया रूप ही है । पूजा आदि में हिंसा-अहिंसा का विवेचन हम पहले विस्तार पूर्वक कर चुके हैं उससे इस बात की सत्यता की बराबर सिद्धि और पुष्टि हो जाती है। जैनागम आवश्यक सूत्र में कहा है कि-"अकसिण पवत्तगाण विरयाविरयाण एस खलु जुत्तो। संसार पयणुकरणे दव्बत्थए कूव दिट्ठन्तो।"
___ अर्थ-महाव्रतों में न प्रवृत हुए विरताविरति (देशविरति-श्रावक-श्राविकाओं) के लिये यह (जिन प्रतिमा आदि की पुष्पादि से) पूजा करने रूप द्रव्य स्तव (द्रव्य पूजा) निश्चय ही युक्त (उचित) है। संसार पतला करने में (घटाने-क्षय करने में)
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