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की मान्यता के भ्रांत प्रचार और प्रसार से जैनधर्म को कितना धक्का पहुंचा है इस का लेखाजोखा करने बैठे तो एक महानग्रंथ का रूप धारण कर लेगा।
परन्तु जिनप्रतिमा द्वारा जिनराज की भक्ति से निर्वद्य उत्कृष्ट अहिंसा का पालन होता है । चढ़ाये जाने वाले द्रव्यों को अभयदान मिलता है और निस्वार्थ भक्ति से मानव मोक्ष प्राप्त करता है।
पूजा में वही द्रव्य चढ़ाये जाते हैं। जिन द्रव्यों को गृहस्थ अपने काम में लाते हैं। प्रभु पूजा में जो द्रव्य काम में लिये जाते हैं उनसे साधक की भावना अर्पण और त्याग की है और उनके द्वारा प्रभु के गुणों का स्मरण चितन, और अपनी आत्मा तथा परमात्मा में एकीकरण, भक्ति में तल्लीनता, चारित्र तथा सम्यक्त्व की निर्मलता एवं मोक्षप्राप्ति का लक्ष्य होता है।
पूज्य पुरुषों के पास खाली हाथ जाने से उनका अविनय माना जाता है। अतः प्रभुभक्ति केलिए मंदिर जी में खाली हाथ नहीं जाना चाहिए। इसलिये प्रभु के चरणों में द्रव्यो को अर्पण करते हुए प्रभु से प्रार्थना की जाती है कि मैं इन भोग उपभोग की सामग्रियों का अनादि काल से सेवन करता चला आ रहा हूँ पर आज तक भी मेरी आत्मा तृप्त नहीं हुई। इन द्रव्यों द्वारा पूजा के निमित्त से मैं अनाहारी पद चाहता हूं। पांचों इन्द्रियों के विषयजन्य सुखों जिनका परिणाम दुःखमय है, उनकी वासनाओं के त्याग की भावना जाग्रत हो तथा दीप के प्रकाश के समान आत्मा के निजस्वभाव केवलज्ञान रूपी प्रकाश की प्राप्ति हो। सर्वकर्म क्षयकर आत्मा के शुद्धस्वरूप को पाकर अजर अमर-पद पाकर शाश्वत सुख रूप मोक्ष को प्राप्त करूं। पानी की बूंद सांप के मुंह में जाने से विष में बदल जाती है और स्वाति नक्षत्र में सीप के मुख में जाने से मोती के रूप में प्रगट होती है । इसी प्रकार जिन द्रव्यों का मानव स्वयं भोगोपभोग करता है वे कर्मबन्धन का कारण विष समान है परन्तु वही द्रव्य यदि तीर्थंकर प्रभु की पूजा भक्ति आदि में अथवा गुरु एवं धर्म की भक्ति के निमित्त काम में लाये जावें तो देव, गुरु, धर्म की आराधना में उन द्रव्यों को अर्पण और त्याग करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है यानी विष अमृत रूप में परिनमन कर जाता है।
सारांश यह है कि जिनप्रतिमा के पूजन में हिंसा असम्भव है। किन्तु अहिंसा के पालन के साथ-साथ भक्ति और साधना से सब प्रकार के सुखों की प्राप्ति होती है । अन्त में जीव मोक्ष को प्राप्त कर शाश्वत सुख को प्राप्त करता है। कहा भी है कि
देवपूजा गुरुपास्तिनमध्ययनं तपः।
सर्वमप्येतदऽफलं हिंसा चेन्न परित्यजेत् ॥1॥ अर्थ-देव पूजा में, गुरु भक्ति में, दान देने में, अध्ययन-अध्यापन में, तप में, इन सब कार्यो में यदि हिंसा का त्याग नहीं है, तो सब निष्फल है।
छद्मस्थ होने से यदि हमें जिनेश्वर देव की पूजा करने में उपयोग की स्खलना
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