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होते हैं। जैसा कि-(1) सर्व प्राणातिपात विरमण (अहिंसा) महावत, (2) सर्वमषावाद विमरण (सत्य) महाव्रत, (3) सर्वअदत्तादान विमरण (अचोर्य) महाव्रत, (4) सर्वमैथुन विमरण (ब्रह्मचर्य) महाव्रत, (5) सर्वपरिग्रह विमरण (अपरिग्रह) महाव्रत, इन पांच महाव्रतों को ग्रहण करने वाला तथा रात्रीभोजन का त्यागी-मुनि, साधु, यति, अणमार, श्रमण, निग्रंथ, भिक्षु आदि नामों से संबोधित होता है।
अब यहां गृहस्थ-श्रावक धर्म की अहिंसा का स्वरूप बतलाते हैं । (1) गृहस्थ के लिए पृथ्वीकाय आदि पांच स्थावरों की हिंसा का त्याग संभव नहीं है। क्योंकि खेती बाड़ी करना, रसोई आदि बनाना, बाग-बगीचा आदि लगाना, मकान, दुकान आदि का निर्माण करना, नगर आदि बनाना, बसाना इत्यादि कार्यों में स्थावर प्राणियों की हिंसा को रोकना कठिन ही नहीं किंवा असंभव है । यदि ऐसी सूक्ष्म हिंसा का त्याग गृहस्थ कर दे तो वह न स्वयं ही जीवित रह सकता है ओर न कुटुम्ब के प्राणियों का निर्वाह ही संभव है । मिट्टी, अग्नि, जल, वायु, वनस्पति का प्रयोग इसे जीवन के क्षण-क्षण में चाहिए अतः श्रावक के व्रत में सूक्ष्म हिंसा का त्याग नहीं है।
(2) गृहस्थ के लिए स्थूल त्रस (चलने, फिरने, उड़ने वाले) द्विन्द्रीय से पंचे-- न्द्रीय प्राणियों की संकल्प-जन्य तथा आरंभ-जन्य हिंसाओं में से आरंभ-जन्य हिंसा का त्याग संभव नहीं है। क्योंकि खेती बाड़ी, व्यापार, क्रय, विक्रय करने–एक जगह से दूसरी जगह माल को जाने, लाने, मकान आदि निर्माण कार्यों में हिंसा का संकल्पभावना के न होने पर भी त्रस-स्थल प्राणियों की हिंसा हो ही जाती है। अतः इस दोनों प्रकार की हिंसा में से मात्र संकल्पजन्य हिंसा के व्रत में त्याग संभव होने मे मात्र संकल्पजन्य हिंसा का त्याग होता है ।
3. गृहस्थ के लिए स्थल (स) जीवों की संकल्पजन्य हिंसा के त्याग में भी सापराधी और निरपराधी अर्थात् अपराधी और निरपराधी हिंसा में से अपराधी की हिंसा का त्याग संभव नहीं है। कारण यह है कि कोई भी गुण्डा, बदमाश, चोर, डाकू, हिंसक, दुश्चरित्र, आक्रमणकारी इत्यादि दुर्गुणी प्राणी अथवा देशी, विदेशी आक्रमणकारी अथवा धर्मद्रोही, देशद्रोही, समाजद्रोही जो अनिष्टकर्ता हैं उनसे अपनी, अपने परिवार की, अपने धर्म की व्यवस्था को कायम रखने के लिये, अपनी, समाज की, नगर की, देश को सुरक्षा करते हुए बस जीवों की संकल्पजन्य हिंसा संभव है । अतः गृहस्थ के व्रत में त्रस प्राणी की संकल्पजन्य हिंसा में अपराधी की हिंसा का भी त्याग नहीं किया जा सकता।
4. गृहस्थ केलिये निरपराधी की भी सापेक्ष और निरपेक्ष दो प्रकार की हिंसा है। सापेक्ष अर्थात् अपेक्षा सहित अनिवार्य आवश्यकता होने पर तथा निरपेक्ष अर्थात् अनावश्यक निष्प्रयोजनीय हिंसा । श्रावक-श्राविका के लिये सापेक्ष-हिंसा का त्याग भी संभव नहीं है। परिवारादि में रोग के कारण शरीर में कीड़े आदि के पड़ जाने पर अथवा पालतू पशु पक्षियों के शरीर, अंग, प्रत्यंग में कीड़े आदि पड़ जाने के कारण
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